– नीना मुखर्जी

१९४७ का विभाजन देश की सामूहिक चेतना पर एक ऐसा घाव है जो आज ७४ साल बाद भी हल्का सा कुरेदने पर ही रिसने लगता है। आज की तारीख़ में कुछ ही लोग होंगे उस काल के पर उनसे सुने किससेअब भी हवा में तैरते हैं।
साठ के दशक में पंजाब में बचपन कटा। मेरा परिवार भी NWF के बन्नू शहर से विस्थापित हो कर विभाजन से कुछ पहले ही दिल में कई भय, कई आशाएँ ले कर सीमा के इस ओर आया था। दादाजी व उनके भाइयों का ट्रान्स्पोर्ट का व्यवसाय था। विभाजन से पहले ही माहौल ख़राब होते देख अपने शहर बन्नू से अपने सारे कुनबे व क़ौम के बाक़ी परिवारों को अपने ट्रकों में लाद कर बनुवाल भाटिया कानपुर आ गए थे, जहाँ उनका व्यवसाय पहले से था। हर परिवार के लिए एक कमरा और एक माह के राशन की व्यवस्था कर दी गई थी। फिर धीरे धीरे लोग अपनी सुविधा अनुसार व्यवस्था कर देहरादून दिल्ली आदि शहरों में फैल गए थे।
बचपन में दादा जी की आराम कुर्सी के बग़ल के ताक पर सदा एक काँसे का बड़ा थाल और कड़छी देख मैं अपनी उत्सुकता न रोक पाई और एक दिन पूछ ही बैठी कि इनका क्या करते हैं। उनका उत्तर मेरे मानस पटल पर जैसे अंकित हो गया था। दरअसल इतने परिवार जब नए शहर में बसने की कोशिश कर रहे थे तो वहाँ के लोकल लोग उससे ख़ुश नहीं थे। वे इन लोगों को अकेला पाते ही परेशान करते थे। आख़िरकार यह तय किया गया था कि हर कोई मुश्किल में पड़ने पर एक थाल बजाएगा और सारा कुनबा तुरंत उसकी मदद को पहुँच जाएगा। ऐसे ही लड़ते भिड़ते अपनी मेहनत से कुछ ही वर्षों में इन लोगों ने अपनी मिट्टी मज़बूत कर ली।
माँ से सुनी थी एक और घटना। वे ६/७ वर्ष की ही रही होंगी जब विभाजन हुआ। उनके परिवार का सीमा के इस ओर से उस ओर कपड़े का व्यवसाय था। सो नाना सपरिवार पहले डेरा इस्माइल खां से लाहौर आए, एक रिश्तेदार के घर। लाहौर के वो कुछ दिन माँ को भुलाए नहीं भूलते थे। घर के सामने ही कुछ दूरी पर एक साबुन की फ़ैक्टरी थी। एक दिन कुछ आक्रमणकारियों ने दिन के वक़्त गेट पर बाहर चेन और ताला लगा कर आग लगा दी। चीख़ें सुन कर जब लोग घरों से बाहर आए तो धू धू कर फ़ैक्टरी जल रही थी और साथ ही जल रहीं थीं सैंकड़ों ज़िन्दगियाँ जो अन्दर कार्यरत थीं। उस माँस के जलने की बू माँ मरते दम तक न भूल पाई थी।
और न भूल पाई थी उन शर्मा जी की कहानी जिनकी मुरादाबाद में इलेक्टरिकल्स की दुकान थी। वे भगदड़ मे अपनी पत्नी से अलग हो गए थे। उनकी पत्नी दुधमुँहे बच्चे को ले कर अपनी अस्मत बचाने को घिरी हुई बस से उतर कर दौड़ी थी कुएँ में छलाँग मारने के लिए। कूद तो पड़ीं वे कुएँ में पर वह कुआँ लाशों से भरा पड़ा था। दो दिन तक चुपचाप उन्हीं लाशों के बीच छुपी रहीं थीं वो जब तक रेसकयू टीम ने उन्हें निकाल कर दिल्ली कैम्प में न पहुँचा दिया।
छोटी सी थी मैं जब पापा वाइस प्रिन्सिपल बन कर राजपुरा गए थे। कालेज नया नया ही बना था। राजपुरा जोकि अब हरियाणा बौर्डर पर पंजाब का पहला शहर है, विभाजन के समय एक गाँव था जिसमें शेरशाह सुरी के समय की एक पुरानी सराय थी। विभाजन के समय बहावलपुर से विस्थापित हुए ढेरों परिवार यहाँ आ कर बस गए थे। उनके लीडर थे कट्टर आर्यसमाजी और कांग्रेसी महाशय शांतिप्रकाश जिन्होंने पंडित नेहरू से गुहार लगा कर अपनी क़ौम के लिए जगह की अनुमति ले ली थी। बाक़ी तो वे लोग मेहनतकश थे, किसी की दया के पात्र नहीं थे। कुछ ही वर्षों में स्कूल, कालेज, व्यवसाय खडे कर लिए थे। उनकी महिलाओं ने भी योगदान दिया जो कि कशीदाकारी में निपुण थीं। आज भी पटियाला, अंबाला के बाज़ारों की शान हैं हाथ की कढ़ाई वाले सलवार क़मीज़।
सात साल की थी मैं जब हम दर्शी वाले घर में किराए पर रहने आए। बड़ा सा दो भाग वाला घर था, एक ओर हम रहने लगे दूसरी ओर मकान मालिक रहते थे। उनकी बेटी दर्शी मेरी हमउम्र थी सो चट से दोस्ती हो गई। उसकी माता जी ही सर्वेसर्वा थीं। पिता कहीं नजर न आए थे, सुना था उनकी एक जूता बनाने की फ़ैक्टरी थी। बस नजर आयीं थीं तो बूढ़ी नानी, जो सारा दिन एक मूढ़े पर बैठी सामने की दीवार को ताकती रहती थी और अपने दुपट्टे से हाथ पोंछती रहती थीं। न जाने ऐसा क्या देख लिया था या छू लिया था जो उनके ज़ेहन में घर कर गया था।
कुछ ही दिन हुए थे हमें उस घर में कि एक रात उनके घर से ज़ोर ज़ोर से चिल्लाने व रोने की आवाज़ सुनाई दी। हम घबरा कर बाहर निकल आए, उनका दरवाज़ा भी खटखटाया, पर कोई नहीं आया।
अगली सुबह दर्शी की माँ ने बताया कि विभाजन के समय उनके पति ने, जो पाँच वर्ष के बच्चे थे, अपने परिवार को अपने सामने जलते देखा था। पूरा परिवार जल कर ख़ाक हो गया था। उन्हें बचाया था उनके पड़ोसी ने जो उस बीमार रोते हुए बच्चे को अपने परिवार के साथ ले कर राजपुरा आ बसे थे। उन्हीं ने पाल पोस कर बड़ा किया था और अपनी इकलौती बेटी व व्यवसाय सब सौंप दिया था। पर इस सदमे से वे कभी बाहर न आ पाए थे। वह बचपन का हादसा उन्हें अब भी रातों को सोने नहीं देता था।
सुनकर स्तब्ध रह गई थी मैं। आसपास के परिवारों मे ऐसे न जाने कितने ही किस्से सुबक रहे थे। ये किस्से, ये यादें मेरे भी जीवन का अभिन्न अंग बन गईं जिन्हें मैं चाह कर भी न भूल पाई और न ही माफ़ कर पाई उन हैवानों को जिनकी ताक़त और ज़मीन की भूख उन्हें बद से बदतर बना गई थी।
कुछ ऐसे ही अपने अनुभवों को सुना रही हैं श्रीमती उर्मिल लूथरा।