चाह रही कि ज्योत जलाऊँ
स्वयं प्रज्ज्वलित लौ बन जाऊँ
माँ तेरे दरबार में
कुछ यूँ दिशा दिशा तम फैला
हुआ प्रकाशित दीप भी मैला
सिर्फ़ चिता का उजियारा है
अब घने अंधकार में।
चाह रही कि फूल चढ़ाऊँ
कुछ जीवन सुरभित कर जाऊँ
माँ तेरे दरबार में
आँधी आयी उजड़ा उपवन
त्रसित हुआ बिखरा जनजीवन
अब कैसे चंदन बन जाऊँ लाशों के अंबार में।
राह न जानूँ, दिशा न जानूँ
पथ भूली संसार में
पूजा मेरी तुम्हें समर्पण
रक्त क्षुधा से जग को तारन
अब के प्रेम मुदित नव चेतन
माँ देना उपहार में।।
– नीना