– नीना मुखर्जी
इक वो वसन्त भी आया था जन में उत्साह समाया था
उस पंचम पावन उत्सव में लोहे ने लहू बहाया था
वीरों ने झूम के आगे बढ़ फंदे को गले लगाया था
वधुओं ने स्वयं रण वेदी पर सौभाग्य सुमन चढ़ाया था
समवेत सुरों में बेटों ने माँ का जयगान सुनाया था
जब पूर्ण स्वराज्य का वादा कर जीवन सम्पूर्ण बनाया था
अब के फिर वसन्त आया है, शिखरों पर भय का साया है
बर्फ़ीले गुम्बज बह निकले मन में आतंक समाया है
यौवन कितना अब बदल गया, उजली दलदल में फिसल गया
घर का न हुआ, जन का न हुआ, अपनेपन से कतराया है
हर चाहत इतनी तंगदिल है अब हवा भी जैसे बोझिल है
भटके राही भूली भाषा खुद पे विश्वास गँवाया है
जो हर बगिया को खिलाएगा ऐसा वसन्त लाना होगा
स्वच्छ धरा और उजला नभ, फसलें धानी नदियाँ कल रव
गुलशन गुलशन फिर महकेगा, आशा भानु फिर चमकेगा
अब नीड़ से उखड़े पंछी को घर का पथ दिखलाना होगा
समृद्धि हर्ष उल्लास के संग, सपनों में हों विश्वास के रंग
उस उजड़ी सोन चिरैया का स्वर्णिम दिन लौटाना होगा !
माँ सरस्वती से वसन्त पंचमी पर है यही प्रार्थना

या कुंदेंदु तुषार हार धवला या शुभ्र वृस्तावता।
या वीणा वर दण्ड मंडित करा या श्वेत पद्मसना।।
या ब्रह्माच्युत्त शंकर: प्रभृतिर्भि देवै सदा वन्दिता।
सा माम पातु सरस्वती भगवती नि:शेष जाड्या पहा।।
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