Courtesy: डॉ मनीष श्रीवास्तव
https://twitter.com/shrimaan/status/1180532409453776896?s=21&t=lTMvr7mXfJM8drfSNtDC_A
बहुत दिन हुए, एक लम्बी कहानी सुनाता हूं। वो कहते हैं ना कि “सच्ची घटनाओं पर आधारित” वैसा ही कुछ..
चलिए चलते हैं सन् १८४० के जून महीने में…..
ब्रितानी युद्धपोतों के एक बेड़े ने चीन की पर्ल रीवर डेल्टा में जाकर युद्ध छेड़ दिया है। चीन के तटीय इलाकों की सुरक्षा व्यवस्था कमज़ोर होने के कारण इस ब्रितानी हमले के सामने चीन ज़्यादा देर नहीं टिक पाता है और घुटने टेक देता है। इस युद्ध में हज़ारों लोग मारे जाते हैं और वो भी मुक्त व्यापार के नाम पर। व्यापारिक कारणों से हुए युद्धों में , गिनती के लिए अगर माना जाए तो ये पहला युद्ध था।
दो दोस्तों विलियम जार्डाइन और जेम्स मैथेसन का इस युद्ध में खासा रोल था। युद्ध से कुछ साल पहले ही इन दोस्तों ने 1832 में मिलकर जार्डाइन, मैथेसन एंड कंपनी बनाई थी जिसका मुख्यालय दक्षिणी चीन का कैंटोन शहर था। उसी कैंटोन को अब चीन के ग्वांझो के नाम से जाना जाता है। उन दिनों ब्रिटेन में चाय के लिए गज़ब की दीवानगी थी और अठारहवीं सदी के आखिर तक ब्रिटेन कैंटोन से लगभग साठ लाख पाउंड की चाय हर साल मंगाने ल गता है। लेकिन जल्द ही ब्रिटेन को इस कारोबार में दिक्कत पेश आने लगती है।
चीन एक शर्त रख देता है कि वो चाय की कीमत के तौर पर केवल चांदी लेगा। ब्रिटेन चाय की कीमत के तौर पर नक्काशीदार बर्तन, वैज्ञानिक उपकरण और ऊनी कपड़े जैसी चीज़ें देने की पेशकश करता है लेकिन चीन इसे लेने से साफ इनकार कर देता है।
चीन के तत्कालीन सम्राट क़ियान लोंग, किंग जॉर्ज तृतीय को पत्र भेजते हैं,
“हमारे पास वो सारी चीजें हैं जो आप पेशकश कर रहे हैं और आपसे बेहतर गुणवत्ता वाली हैं।मैं ऐसी बेकार चीज़ों का कोई मूल्य नहीं समझता और आपके देश में बनी चीज़ों का हमारे यहां कोई इस्तेमाल नहीं है”
इन पचास सालों में ब्रिटेन चीन को 270 लाख पाउंड की कीमत के बराबर चांदी का भुगतान करता है किन्तु इसके बदले उन्हें केवल 90 लाख पाउंड के सामान उन्हें बेच पाता है।
ब्रिटेन के लिए चीन से आने वाली ये चाय धीरे-धीरे महंगा सौदा साबित होने लगी थी और उन्हें वहां पैसा बनाने का कोई दूसरा रास्ता दूर दूर तक भी दिखाई नहीं दे रहा था।
कम से कम क़ानूनी तौर पर तो ऐसा ही था…..
हालांकि चीन में अफ़ीम पर प्रतिबंध था बावजूद इसके कि चीनी चिकित्सा पद्धति में अफ़ीम का इस्तेमाल हज़ारों सालों से होता आ रहा था।
और फिर भारत में मौजूद ब्रितानी कारोबारी इसे एक शानदार मौके के तौर पर देखते हैं। उस वक़्त बंगाल के इलाके में अफ़ीम की पैदावार बड़े पैमाने पर होती थी।
आगे आने वाले वक़्त में चीनी अफीम को तंबाकू में मिलाकर नशे के लिए इसका इस्तेमाल करने लगे थे।
और फिर जल्द ही चीनी समाज के एक बड़े हिस्से को अफ़ीम की लत लग गई और वे इसकी गिरफ्त में आ गए।
और अब इसका सामाजिक दुष्प्रभाव भी सामने आने लगा था।
1729 के आते आते चीन सम्राट योंगझेंग अफ़ीम की खरीद-बिक्री और नशे के तौर पर इसके इस्तेमाल पर पूरी तरह से पाबंदी लगा देते हैं।
लेकिन सौ साल गुज़र जाने के बाद चीनियों की अफीम के प्रति दीवानगी ज़रा सी भी कम नहीं होती है और अंग्रेज उनकी इस लत का फायदा उठाना शुरू कर देते हैं।
और फिर1836 आते-आते शुरू होता है एक नया व्यापार..
अफ़ीम की तस्करी..
एक ऐसा व्यापार जो आने वाले समय में दुनिया कि शक्ल बदल देने वाला था।
भारत से हर साल अफ़ीम की 30 हज़ार पेटियां चीन पहुंचने लगी थीं और जार्डाइन, मैथेसन एंड कंपनी इस कारोबार के एक चौथाई हिस्से पर कब्जा कर चुकी थी। और इस प्रकार चीन में अफ़ीम पर पाबंदी के सरकारी आदेश को तोड़कर ब्रिटेन ने चीन से अपनी आमदनी बढ़ाने का तरीका खोज निकाला था।
यूनिवर्सिटी ऑफ़ हॉन्ग-कॉन्ग के प्रोफेसर जैन कैरोल कहते हैं, “ब्रितानियों को ये एहसास हुआ कि भारत के पूर्वी इलाके में अफीम की बड़ी पैदावार होती है और चीन में इसकी तस्करी से काफी मुनाफ़ा कमाया जा सकता है”
चीन के कैंटोन शहर की तटीय स्थिति से ये ब्रिटेन के लिए काफी आसान काम था।
कैरोल आगे बताते हैं, “वे छोटी नावों में अफ़ीम रखकर उसे आसानी से कैंटोन के तट पर पहुंचा देते थे जहां किनारे पर उनकी मदद के लिए हमेशा कोई मौजूद होता था”
पूर्वी हिस्सा समझते हैं ना आप भारत का ?
वही जिसे आज आप बंगला देश के नाम से जानते हैं।
ब्रिटेन का इस तरह से क़ानून तोड़ना ज़्यादा समय तक चीन से छुपा नहीं रहा था और 1839 में चीन के सम्राट डाओग्वांग ने नशीले पदार्थों के खिलाफ़ युद्ध की घोषणा कर ही डाली।
पश्चिमी कारोबारियों के ख़िलाफ़ छापेमारी का अभियान शुरू करने का आदेश दे दिया गया..
दुनिया बदलने वाली थी….
कैंटोन इलाके में स्थित गोदामों पर रेड डाल कर और चीनी सैनिकों ने इसे सील कर दिय। साथ ही विदेशी कारोबारियों को सरेंडर करने के लिए चीनियों ने मजबूर कर दिया था।
कौन थे विदेशी कारोबारी ??
चीन इस कार्रवाई में 20 लाख पाउंड की कीमत के सामान ज़ब्त कर लेता है।जिसमे अफ़ीम की 20 हजार पेटियां और 40 हज़ार ओपियम पाइप्स भी शामिल होते हैं।
ये विलियम के लिए बड़ा धक्का था और वो इसका बदला लेने के लिए कुछ भी करने को तैयार था।
विलियम जार्डाइन कैंटोन से लंदन के लिए रवाना हो जाता है जहां ब्रिटेन के विदेश मंत्री लॉर्ड पाल्मर्स्टॉन से चीन पर जवाबी कार्रवाई के लिए पैरवी की जाती है।
ब्रिटेन उस समय भारत के शासक थे..
चूंकि बांग्लादेश अभी बना नहीं था और ब्रिटेन को भारत से मिलने वाले राजस्व में अफ़ीम की बड़ी भूमिका थी, इसलिए ब्रितानी सरकार चीन में नौसेना भेजने के फैसले में ज़्यादा वक्त नहीं लेती है और शुरू होती है एक दर्दनाक युद्ध की दास्तां..
और यही वो जून का महीना था १८४० का जब ब्रिटेन ने १६ युद्धपोत और जहाज चीन के पर्ल रीवर डेल्टा की तरफ रवाना कर दिए थे।
भविष्य तय हो चुका था..
इन जहाज़ों पर करीब ४००० लोग सवार थे और इसी जहाजी बेड़े में युद्धपोत नेमेसिस भी था जिसपर दो मील तक दागे जा सकने वाले रॉकेट लॉन्चर तैनात थे।
इस हमले के लिए हालांकि चीनी तैयार थे लेकिन ब्रितानी ताकत का मुकाबला करने की उनमें काबिलियत नहीं थी। उनके तोप ब्रिटेन के सामने चार से पांच घंटे तक ही टिक सकते थे।अगले दो सालों तक ब्रितानी नौसेना चीन के तटीय इलाकों से होती हुई शंघाई की तरफ बढ़ने लगी..
अधिकांश चीनी सैनिक पहले हीअफ़ीम की लत का शिकार थे और उन्हें हर जगह हार का सामना करना पड़ा।इस युद्ध में करीब २५ हज़ार चीनी हताहत हुए जबकि ब्रिटेन ने ६९ सैनिक गंवाए थे।
इस युद्ध ने चीन को पूरी तरह से हिला दिया था..
और फिर अगस्त १८४२ में एचएमएस कॉर्नवालिस पर नानकिंग के पास चीनियों से अंग्रेज़ों का समझौता हुआ जिसे दुनिया ‘अनइक्वल ट्रीटी’ या ‘गैरबराबरी की संधि’ के नाम से जानती है।
आगे आने वाला समय अपनी किताब के पन्ने खोलने लगा था।
ब्रिटेन को इसी संधि से हॉन्गकॉन्ग पर कब्जा मिला था जिसका इस्तेमाल आगे चलकर चीन में अफ़ीम का कारोबार बढ़ाने के लिए किया जाना था।
वहां भारत में कुछ परिवार मुस्कुरा रहे थे।
उधर १८३९ में कहीं दूर एक बालक का जन्म हो चुका था जो आने वाले समय में भारत को एक नहीं दिशा देने वाला था।
इनका नाम है जनाब डेविड सासून जो १८१७ से १८२९ तक बगदाद के खजांची थे और बंबई में यहूदियों के आने के बाद यहूदी जमात के बड़े कद के नेता थे।

इनका मुंबई आने का कारण इराक़ में यहूदियों के ऊपर अत्याचार था।
इनका आना वाया ईरान हुआ था और करीब करीब १८३२,३४ के आसपास इन्होंने अपना व्यापार मुंबई में जमा लिया था।
ब्रिटिश टेक्सटाइल और अरब व्यापारियों के बीच ये बिचोलिए का काम करते थे।
यहूदियों के सबसे बड़े प्रतिद्वंदी थे मुंबई के पारसी जिनमे सबसे बड़ा नाम था जे जे टा टा का और आगे चलकर इनमें से एक बहुत बड़ा कमाल करने वाला था।
इस श्रृंखला को यही विराम दे रहा हूं।
अब आपके ऊपर है कि आप खोजे कि इन सभी के साथी कौन थे..