– नीना मुखर्जी
अमर सिंह का हाथी उन्हें ले कर भागा जा रहा था। साथ ही घोड़े पर उनके दो वफ़ादार साथी थे। ज्यूँ पीछे मुड़ कर देखा तो मैदान लाशों से पटा लहू में लथपथ था। उनके आख़िरी सत्तानबे साथी वीरता से लड़ते लड़ते युद्ध में खेत रहे थे। एक अंग्रेज़ी घुड़सवारों की टुकड़ी जिसमें कुछ सिख सिपाही भी थे, तेज़ी से उनकी ओर बढ़ती आ रही थी। अचानक साथी का इशारा पा कर अमरसिंह हाथी की पीठ से कूद गए और फुर्ती से साथ चल रहे घोड़े पर सवार हो गए। जैसे ही घोड़े को एड़ लगाई घोड़ा हवा से बातें करता हुआ पहाड़ियों की ओर सरपट भागा।

अमर सिंह की आँखों के सामने सपने की भांति फिर वो रक्त से लथपथ अधकटी बाँह का दृश्य घूम गया। ज्येष्ठ भ्राता वीर कुँवर सिंह का वह शौर्य, उनका वह साहस और देश प्रेम की वह अथाह शक्ति सदा भाइयों को व परिवार के अन्य सदस्यों को प्रेरणा देती रही थी। और घूम गया उस काली रात का वह भयावह दृश्य जब अंग्रेज़ों के पास ग़लत ख़बर भिजवा कर, कि कुँवर सिंह हाथियों पर गंगा पार करने वाला है, कुँवर सिंह ने उससे सात मील दूर नावों का प्रबन्ध कर रखा था। इस पार खड़े रह कर पूरी सेना को सुरक्षित गंगा पार करवाने के पश्चात कुँवर सिंह स्वयं नौका सवार हो गंगा पार कर रहे थे जबकि अंग्रेज़ सारी रात हाथियों की प्रतीक्षा करने के बाद धोखे से बौखलाए ढूँढते हुए वहाँ पहुँचे थे।
वीर कुँवर सिंह की नौका नदी के मध्य में थी जब अंग्रेज़ों की गोली उनकी बाज़ू में घुस गई थी। परन्तु तीव्र वेदना व रक्तस्त्राव कुँवर सिंह के चेहरे पर एक शिकन तक न ला पाई थी। उस नर शार्दूल ने तलवार के एक ही वार से अपने उस घायल बाज़ू को गंगा को अर्पण कर दिया था। दूसरे सिरे पर खड़े अमर सिंह व बाकी सेना को जब तक भान होता कि वास्तव में क्या हुआ है कुँवर सिंह की नौका घाट पर लग चुकी थी। और बौखलाई हुई अंग्रेज़ी सेना नदी के लाल बहाव को देख रही थी।
बाबू अमर सिंह जो चार भाइयों में सबसे छोटे थे, कम उम्र से ही बड़े भ्राता राजा कुँवर सिंह की देख रेख में पले बढ़े थे और उन्हीं से युद्ध कला में दीक्षित हुए थे। राजसी क़द काठी, रोबदार व्यक्तित्व, सतर्क तीक्ष्ण आँखें और घुमावदार मूँछों से लैस अमर सिंह इस उम्र में भी अनायास ही ध्यान आकर्षित कर लेते थ। जगदीश पुर बिहार में एक छोटी सी रियासत थी जिसके मालिक को राजा की उपाधि मिली हुई थी। यह रियासत शुरू से ही परमार राजपूतों के अधीन थी और राजा भोज के वंशज गद्दी पर विराजते थे। १८३४ में इस्ट इन्डिया कम्पनी ने यह नई नीति लागू की थी कि किसी भी राजा का दत्तक पुत्र उत्तराधिकारी नहीं माना जाएगा। इस नीति के तहत कई रियासतें अंग्रेज हड़प चुके थे। और लार्ड डलहौज़ी की भू-पिपासा ने तो इसको हथियार ही बना लिया था। जगदीशपुर की रियासत भी डलहौज़ी की इस दुर्नीति का शिकार हो चुकी थी। यह इन परमार क्षत्रियों को शूल की तरह चुभता था।
सन १८५७ की क्रान्ति वास्तव में भारत के नरेशों, आम जनता तथा अंग्रेज़ी सरकार के अधीन भारतीय सैनिकों की देश को विदेशी शासन से मुक्त कराने की व्यापक कोशिश थी। इस राष्ट्रीय प्रयत्न का सूत्रपात गहरी योजना और गुप्त संगठन के साथ हुआ था। परन्तु चर्बी वाले कारतूसों और भारतीय सैनिकों के प्रति अंग्रेज अफ़सरों के दुर्व्यवहार के कारण यह लावा समय से पहले ही फूट पड़ा था। उसके बाद के घटना क्रम क्रान्ति के नेताओं के अधीन न रहे थे। जिससे जहां बन पड़ रहा था अपनी लड़ाई लड़ रहा था। पर क्रान्तिकारियों में अनुशासन की भारी कमी थी। बिहार में संगठन अवध या दिल्ली जैसा न था, फिर भी यहाँ क्रांति के कई छोटे बड़े केन्द्र थे।
ऐसे समय में भारत में एक बहुत ही अनसुनी अनहोनी सी प्रकिया चल रही थी चारों ओर। न जाने किसने शुरु की थी, न जाने किसके निर्देश पर हो रही थी, न जाने इसका लक्ष्य क्या था पर चल रही थी बड़े ही उत्साह के साथ। वह थी चपाती अभियान की प्रकिया । प्रारंभ हुई हरकारों से, निर्देशानुसार स्त्रियाँ दस दस रोटी बना कर हरकारों को दे देती थीं और वे दौड़ कर दूसरे गाँव में बाँट देते थे। जिसको रोटी मिलती थी वह दस दस रोटियाँ बना कर आगे भेज देता था। धीरे धीरे यह इतना फैल गया कि सिपाही भी इसमें युक्त हो गए। एक समय में ९०००० तक सिपाही और हरकारे इसमें संलग्न थे। कहा जाता है कि एक रात में चपातियाँ तीन सौ मील तक पहुँच जाती थीं। जहां पहुँचती वहाँ सब इसमें अपने अपने मंतव्य निकाल लेते थे। जन साधारण में यह धारणा व्यापक थी कि जल्द ही कुछ बहुत बड़ा होने वाला है। उत्तर भारत की यह लहर तेज़ी से दूसरे प्रांतों में भी जंगल की आग की तरह फैल रही थी। अंग्रेज हैरान थे, न इन चपातियों पर कुछ लिखा होता था, न ही इसमें कुछ शंकित करने वाला था। पर चारों ओर गोल गोल चपातियाँ पूरी मुस्तैदी से पहुँच रहीं थीं। उन्हें कुछ समझ न आ रहा था, पकड़ भी लें तो इसका कोई अर्थ न निकाल पाते थे। कभी कभी साथ में लाल कमल भी बंटता था।
जब पहले पहल अमर सिंह तक चपाती और लाल कमल पहुँचा था तो उन्होंने प्रश्न भरी आँखों से सिपाही की ओर देखा था। जाते जाते उसकी फुसफुसाहट कि ‘सब लाल कर देंगे’ अमर सिंह के बदन में बिजली दौड़ा गई थी। फिर क्या था, पत्नी की मदद से वे भी चपाती अभियान से जुड़ गए थे। घर की स्त्रियां नियमबद्ध तरीके से दिन की कई रोटियां बना कर दे देतीं और अमर सिंह हरकारों को भेज उन्हें आगे बढ़वा देते। कुछ न कर पाने के बीच एक अलग सी शांति देता था यह छोटा सा प्रयास। एक दबी सुगबुगाहट के बीच हर कोई अपनी गतिविधियों को तीव्रतर कर रहा था।
सम्पूर्ण भारत से कई प्रकार की खबरें आ रहीं थीं। अमर सिंह की बेचैनी बढ़ती जा रही थी। बचपन से देश प्रेम और बड़े भाई की दी हुई शिक्षा दीक्षा पर ही उनके स्वभाव की नींव पड़ी थी। उनकी पत्नी, लीला जो स्वयं एक वीर क्षत्राणी थीं, उनके मन के भाव समझ रहीं थीं। स्वभाव से शांत परन्तु देश प्रेम से ओतप्रोत, अपने मन को संयत करते हुए आने वाले बलिदान के लिए तैयार कर रही थीं। वे यह भी जानती थीं कि अमर सिंह कोई भी कदम उठाने से पहले बड़े भाई के आदेश की प्रतीक्षा करेंगे। वे यह भलीभाँति जानते थे कि वीर कुँवर सिंह और उनके बाकि भाई इस परिस्थिति में घर बैठ कर तमाशा तो नहीं देख सकते थे। बीच बीच में यह विचार भी मस्तिष्क में कौंध जाता था कि यदि उनका राज्य अंग्रेज़ी सेना के अधीन हो गया तो घर परिवार की स्त्रियों व बच्चों का क्या होगा। क्या वे सब युद्ध में आहुति देने को प्रस्तुत थे? इस प्रश्न का उत्तर किसी के पास न था। एक थमथमाहट के बीच कठिनाई और बेचैनी से दिन कट रहे थे।

कुँवर सिंह की आयु उस समय अस्सी के आसपास थी जब दानापुर की हारी हुई बेहाल क्रान्तिकारी सेना १८ मार्च १८५७ जगदीश पुर पहुँची थी। बूढ़े कुँवर सिंह सैनिक विद्रोह की खबर पा बेचैन शेर की तरह मौक़े की प्रतीक्षा कर रहे थे। उन्होंने थके हारे सिपाहियों को आश्रय दिया और तुरंत शस्त्र उठा कर इस सेना का नेतृत्व संभाला था। सिपाही तो सर पर कफ़न बांध कर ही घर से निकले थे। ऐसा शौर्यवान नेता तथा हथियार पाकर उनका उत्साह दोगुना हो गया। कुँवर सिंह के तीन कनिष्ठ भ्राता और सेनापति हरेकृष्ण सिंह हर पल, हर मुहिम में साए की तरह उनके साथ थे। कुँवर सिंह अपनी सेना ले कर आरा पहुँचे और अंग्रेज़ी ख़ज़ाने पर क़ब्ज़ा कर लिया तथा क़िले को घेर लिया। तीन दिन तक आरा के क़िले पर क़ब्ज़ा ला। तब तक कप्तान डनवर गोरे और सिख सिपाहियों की सेना ले कर आ गया और दोनों सेनाएं आमने सामने भिड़ गयीं। आरा और बीबीगंज में अंग्रेज़ी सेना के साथ महीनों तक छोटे छोटे संग्राम होते रहे। वृद्ध युवा कुँवर सिंह की अगुवाई में यह सेना जिस ओर मुख करती अंग्रेज़ी सेना घबरा जाती। अंत में मेजर आयर ने एक बड़ी सेना और तोपों सहित हमला किया और फिर हुआ घमासान युद्ध। फलस्वरूप कुँवर सिंह की सेना को पीछे हट कर जगदीश पुर लौटना पड़ा। अंग्रेज़ी सेना ने उनका पीछा किया, कई दिनों तक संग्राम चला।

अन्त में मेजर आयर ने १४ अगस्त को जगदीश पुर पर क़ब्ज़ा कर लिया। महल की सब स्त्रियाँ और बारह सौ सैनिक राजा के साथ वहां से निकल लिए। महीनों तक कभी इस गाँव में तो कभी उस गाँव में, कभी किसी जंगल में कई छोटी छोटी लड़ाइयाँ होती रहीँ। सारा परिवार ही इस युद्ध में अपना सहयोग दे रहा था। न परिवार की स्त्रियों ने न ही बच्चों ने एक बार को अपना असंतोष जताया था। ऐसे ही संस्कार थे क्षत्रियों के और ऐसी ही वीर स्त्रियाँ थीं। लोरियाँ न गाई जाती थीं इन के घरों में। घर के काम काज करते समय वे वीरता की कहानियाँ तो बच्चों को सुनाती ही थी और ऐसे ऐसे गीत रच रखे थे कि थके हुए सैनिकों में नव प्राण का संचार हो जाए। बड़ी भाभी तो जैसे अन्नपूर्णा का अवतार थीं। कितने भी व्यक्ति भोजन पर बैठ जाएँ, थाली किसी की ख़ाली न रहती थी। इतने कठिन समय में न जाने कहाँ से पूरा करती थीं। अमर सिंह तो बचपन से ही भाभी में माँ का स्वरूप देखते थे। इस उम्र में भी उनकी ऊर्जा और तत्परता देख कर श्रद्धा से नत मस्तक हो जाते थे।

आठ महीने भटकने के बाद जब कुंवर सिंह अपने स्वयं काटे हुए बाज़ू पर कपड़ा लपेटे जगदीश पुर पहुँचे तो अमर सिंह ने पहले ही पहुँच कर कुछ सेना जमा कर रखी थी और चुपचाप पूरी तैयारी कर रखी थी। फिर संग्राम हुआ तथा जगदीश पुर पुन: स्वतन्त्र हो गया। अमर सिंह की दूरदर्शिता के कारण २३ अप्रैल १८५८ को फिर से कुँवर सिंह अपनी पैतृक रियासत पर राज करने लगे। परन्तु उनका घाव अभी तक अच्छा न हुआ था। २६ अप्रैल को अपने महल के अन्दर ही वे स्वर्ग सिधार गए। उनकी मृत्यु के समय स्वाधीनता का ध्वज उनके क़िले पर लहरा रहा था । बाकि दोनों भाई पहले ही रणक्षेत्र की बलि चढ़ चुके थे । कुंवर सिंह की पत्नी सोलंकी वंश की थी। उन्होंने न कभी थकना सीखा था न ही हार मानना । उन वीर क्षत्राणी ने अमर सिंह का साहस बढ़ाया और आश्वासन दिया कि वे परिवार की चिन्ता छोड़ कर अपने कर्तव्य पथ पर अग्रसर हों। अमर सिंह तो वैसे ही बेचैन हो रहे थे हथियार उठाने को । पत्नी जो उनकी चिर संगिनी थीं, उन्होंने सदा ही साहस और धैर्य से अमर सिंह का हौसला बढ़ाया था। माँ समान बड़ी भाभी का आशीर्वाद पा कर वे आश्वस्त हुए और अपनी योजना में जुट गए।
अब अमर सिंह ने जगदीश पुर की गद्दी सँभाली। गद्दी पर क्या बैठना था, न ही उनके पास शोक मनाने का समय था न विश्राम करने का। उन के मन में न केवल जगदीश पुर की रियासत पर अपनी सत्ता जमाए रखने की चाह थी अपितु बड़े भ्राता की तरह अपनी जन्म भूमि को स्वतन्त्र कराने का संकल्प भी था। अपने गुरू और अग्रज की भाँति वे भी छापामार कला में सिद्ध हस्त थे। अमर सिंह भी तो उसी शेरनी की संतान थे जो वीर कुंवर सिंह माँ थी, वीरता उनकी नस नस में भरी थी। ज़रा भी ढील न देते हुए यह रण पंडित आरा शहर का दरवाज़ा ठोकने लगे। इधर लोग्रैंड की सेना की पराजय की ख़बर पा कर बिर्गेडियर डग्लस व जनरल ल्यूगार्ड की सेनाएँ गंगा पार कर आरा पहुँच गईं। राजा अमर सिंह की सेना का ३ मई को घमासान संग्राम हुआ अंग्रेज़ी सेना के साथ। उसके बाद आसपास के इलाक़ों में बिहिंया, हातमपुर, दलीलपुर इत्यादि अनेक स्थानों पर कई संग्राम हुए। अमर सिंह भी उसी युद्धनीति में निपुण थे जिसने राजा कुँवर सिंह को सदा विजय दिलाई थी। सो वे बार बार अंग्रेज़ों को हराते व हानि पहुँचाते रहे। डग्लस ने भी अपनी सात हज़ार सेना के साथ अमर सिंह को समाप्त करने की ठान ली थी। महीनों तक उनकी भिड़न्त चलती रही पर अमर सिंह परास्त न हुआ। जगदीश पुर पर अपना आधिपत्य रखते हुए अमर सिंह ने आरा में प्रवेश किया। हार कर अंग्रेज़ सरकार ने अमर सिंह के सर पर बड़ा इनाम घोषित कर दिया पर इससे भी कोई लाभ न हुआ।
हर दो तीन दिन में दलितपुरा, बिहिंया आदि पर अंग्रेज़ गोला बारी करते रहते। फिर भी अमर सिंह इतनी शक्तिशाली सेना का सामना अपनी सीमित सेना के साथ बहुत बहादुरी से करते रहे। जब अंग्रेज़ों ने जगदीश पुर भी अपने क़ब्ज़े में ले लिया तो सेना में थोड़ी निराशा छा गयी। सिपाही भी लगातार युद्ध करते थक चुके थे। पर अमर सिंह की आँखों में न नींद थी न मन में चैन। दिन रात लड़ाई के नएनए तरीके सोचते रहते। अन्ततः उन्होंने युक्ति का प्रयोग किया। अपनी सेना को छोटी छोटी टुकड़ियों में विभाजित किया जो रणक्षेत्र में अंग्रेज़ी सेना पर छापामार हमला कर इधर उधर बिखर जाती थी। अंग्रेज़ी सेना एक जगह पर चढ़ाइयाँ करती तो दूसरी टोली किसी दूसरी जगह पर क़ब्ज़ा कर लेती। लोक समूह की सहायता और सहकारिता भी थी। अंग्रेज़ी सेना के लिए यह एक अदृश्य सेना से युद्ध करने के समान था। अमर सिंह की इस युक्ति से अंग्रेज़ी सेना निराश व हताश हो गई और छावनी में लौट गई। उनका सेनापति ल्यूगार्ड भी इस्तीफ़ा देकर इंग्लैंड लौट गया। यह देखते ही छोटी छोटी टुकड़ियों में बिखरी हुई सेना एकत्र हो गई और जगदीश पुर का राजा अपनी सेना के साथ फिर प्रकट हो गया। उस विजय के जोश में उन्होंने गया में क़ैद सभी विद्रोहियों को अंग्रेज़ी पुलिस से मुक्त कराया तथा आरा को स्वतंत्र घोषित कर वहाँ अमर सिंह का झंडा लगा दिया। और साथ ही जगदीश पुर पर अपना आधिपत्य स्थापित करते हुए फिर स्वतंत्रता का झंडा फहरा दिया। ब्रिगेडियर डग्लस अपनी सात हज़ार की बलशाली सेना से उस छोटे से राजा का कुछ नहीं बिगाड़ पा रहा था। उसकी योजना भंग करने को धन का लालच दे कर सिपाही भी भेजे गए, अंग्रेज़ी सेना नए नए उपाय ढूँढती रही पर अमर सिंह का बाल भी बाँका नहीं कर पाई।
अन्त में यह फ़ैसला लिया गया कि अमर सिंह को उनकी रियासत के अन्दर ही ख़त्म किया जाएगा। सात ओर से शक्तिशाली सेनाएँ जगदीशपुर की ओर बढ़ीं। जनरल का कड़ा आदेश था कि चारों ओर से सब रास्ते बन्द कर के जगदीश पुर पर एकसाथ हमला होगा, अमर सिंह किसी भी प्रकार से बचने न पाए।
इतने ज़बरदस्त नियोजन के बावजूद छ: सेनाएँ तो नियत समय पर पहुँच गईं पर एक टुकड़ी के आने में कुछ घंटों की देर हो गई। अमर सिंह जो चौकन्ना हो कर मौक़े की तलाश में थे अपने कुछ ख़ास साथियों के साथ जाल में से हवा हो गए। इधर जब अंग्रेज़ी सेना को ख़ाली पिंजरा मिला तो वह और बिफर गई। चुने हुए घुड़सवारों को विद्रोहियों के पीछे लगा दिया। अब उसके पास नई एनफील्ड राइफ़ल भी आ गई थीं जो विद्रोहियों की मस्कट बन्दूक़ों से कहीं ज़्यादा दमदार थीं।
१९ अक्तूबर को नौनदी ग्राम में घमासान युद्ध हुआ।। सैकड़ों क्रान्तिकारी काट डाले गए या भून दिए गए। अमर सिंह जिन चार सौ सिपाहियों को साथ ले जान हथेली पर रख कर लड़ रहे थे उसमें से तीन सौ सिपाहियों ने वीरता से लड़ते लड़ते अपने प्राणों की आहुति दे दी थी। शेष सौ सिपाही आख़िरी दम तक लड़े। अन्ततः उन वीरों ने अपने प्राण निछावर कर दिये। सात महीनों की लम्बी लडाई के बाद, गोरों से कई बार मुठभेड़ करने के बाद अन्त में अमर सिंह को पराजय का मुँह देखना पड़ा। अब अंग्रेज़ी सेना आख़िर में अमर सिंह और उनके दो साथियों का पीछा कर रही थी। हाथी पर सवार अमर सिंह मौक़ा पा कर हाथी से कूद गए। उनके साथी ने उन्हें अपना घोड़ा दे दिया। और स्वयं पीछे तलवार चलाता रहा। एक नजर पीछे मुड़ कर लाशों से पटे मैदान पर डाल अमर सिंह ने अब कैमूर के पर्वतों में प्रवेश किया। अंग्रेज़ी सेना उनके पीछे घुसी पर वे अमर सिंह की तरह वहाँ के चप्पे चप्पे से वाक़िफ़ नहीं थी।
अमर सिंह तक यह समाचार पहुँच चुका था कि जगदीश पुर की महिलाओं ने शत्रु के हाथ में पड़ना गवारा न किया था। अंग्रेज़ी सेना महल में घुसने से पहले वे स्वयं तोपों के सामने खड़ी हो गईं और स्वयं पलीता लगा कर सारी यंत्रणा का क्षण भर में अंत कर दिया था। घर के बच्चों की दबी हुई चीखों के विचार से ही वे घबरा उठे। चाह कर भी उन्हें भुला न पा रहे थे। परिवार की स्त्रियाँ उनके मानस पटल पर क्षण भर को उभरीं। उन वीर परमार क्षत्राणियों को श्रद्धा से नमन कर, अनचाहे ही उमड़े आए अश्रुओं को सिर के एक झटके से गिरा वीर अमर सिंह ने घोड़े को एड़ लगाई और गर्वोन्नमत मस्तक को सामने की ओर लक्षित किया।
उन्हें सामने दूर कहीं सिर्फ़ ज्येष्ठ भ्राता कुँवर सिंह नजर आ रहे थे जो अधकटी बाँह फैलाए उनका आवाहन कर रहे थे। उसी ओर घोड़े को दौड़ाते हुए उन घने जंगलों में अमर सिंह धुएँ की लकीर की तरह विलीन हो गए। शेष तक वीर राजा अमर सिंह शत्रु के हाथ न आए, न ही उनके अंतिमप्रयाण के विवरण का ही इतिहास साक्षी है।
एक सैनिक जिसने अमर सिंह की सेवा की और 1858 में पकड़ लिया गया, उसने अपनी सेना के बारे में कुछ विवरण दिया। [5] उन्होंने कहा कि अमर सिंह के पहाड़ियों में पीछे हटने के बाद, उनके पास लगभग 400 घुड़सवार और छह बंदूकें थीं। बंदूकें कलकत्ता के एक मैकेनिक से प्राप्त की गई थीं जिन्होंने सीधे अमर सिंह की सेवा की थी। बल के पास तोप के गोले भी थे जिनका निर्माण जगदीशपुर में ब्रिटिश नौकाओं पर छापे से प्राप्त सीसे से किया गया था। अमर सिंह साथी विद्रोही नेता नाना साहिब के साथ अपनी सेना में शामिल होने की भी योजना बना रहा था ।
सन सत्तावन की क्रान्ति ने भारत के एक कोने से दूसरे कोने तक स्वतंत्रता की अग्नि को प्रज्वलित किया था। राजा, रजवाड़े,सिपाही, साधारण जनता, स्त्रियां, आदिवासी, किसान और समाज का हर छोटा बड़ा जुट पड़ा था मातृ भूमि को स्वतंत्र करवाने को। उस होम मे हज़ारों प्राणियों ने अपनी आहुति दे दी पर असाध्य साध्य न हुआ। जो स्वतन्त्रता की आशा उदय हुई थी वह फिर सौ वर्षों के लिए अंधकार में डूब गयी!
Source- Wikipedia and local folk lores