– सीमा कमल किशोर
दुर्गावती देवी

भारत की आजादी के लिए अपनी जान की परवाह किए बिना अंग्रेजों से लड़ने वालों में महिला स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का भी विशेष महत्व है। देश की आजादी की लड़ाई के लिए महिलाओं ने खुद को बलिदान कर दिया था। अपनी राजनैतिक-सामाजिक-सास्कृतिक-आर्थिक पराधीनता से मुक्ति के लिए सन् 1857 से सन् 1947 तक दीर्घावधि क्रांति यज्ञ की बलिवेदी पर अनेक राष्ट्रभक्ति ने तन-मन जीवन अर्पित कर दिया था। झांसी की रानी, अहिल्या बाई और कई दमदार व्यक्तित्व की महिलाओं में से जाबांजी का भारतीय इतिहास गवाह है। इन महिलाओं में से एक नाम दुर्गावती का है। दुर्गावती ‘दुर्गा भाभी’ के नाम से प्रसिद्ध है। दुर्गावती भले ही भगत सिंह, सुख देव और राजगुरू की तरह फांसी पर न चढ़ी हों लेकिन कंधे से कंधा मिलाकर आजादी की लड़ाई लड़ती रहीं। दुर्गावती बम बनाती थीं तो अंग्रेजों से लोहा लेने जा रहे देश के सपूतों को टीका लगाकर विजय पथ पर भी भेजती थीं।
कौन थीं दुर्गावती देवी
दुरेगावती का जन्म 7 अक्तूबर 1907 को उत्तर प्रदेश के प्रयागराज शहजादपुर गांव (अब-कौशाम्बी) जिला में पंडित बांके बिहारी के यहाँ हुआ था। इनके पिता इलाहाबाद कलेक्ट्रेट में नाजिर थे और इनके बाबा महेश प्रसाद भट्ट जालौना जिला में थानेदार के पद पर तैनात थे। दुर्गावती का विवाह 11 साल की उम्र में हुआ था। उनके पति का नाम भगवती चरण वोहरा था, जो कि हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के सदस्य थे। इस एसोसिएशन के अन्य सदस्य उन्हें ‘दुर्गा भाभी’ कहते थे, इसलिए वह इसी नाम से प्रसिद्ध हो गईं । इनका पूरा जीवन संघर्ष का जीता जागता प्रमाण है।
स्वतंत्रता संग्राम में दुर्गावती का योगदान
दुर्गावती भारत की आजादी और ब्रिटिश सरकार को देश से बाहर खदड़ने के लिए सशस्त्र क्रांति में सक्रिय भागीदार थीं। आजादी की धारा की क्रांतिकारी धारा में सक्रिय भागीदारी थीं। दुर्गावती को भारत की ‘आयरन लेडी’ भी कहा जाता है। मार्च 1926 में भगवती चरण वोहरा व भगत सिंह ने संयुक्त रूप से नौजवान भारत सभा का प्रारूप तैयार किया और रामचंद्र कपूर के साथ मिलकर इसकी स्थापना की। सैकड़ों नौजवान ने देश को आजाद कराने के लिए अपने प्राणों का बलिदान वेदी पर चढ़ाने की शपथ ली। भगत सिंह व भगवती चरण वोहरा सहित सदस्यों ने अपने सक्त से प्रतिज्ञा पत्र पर हस्ताक्षर किए।बहुत ही कम लोगों को ये बात मालूम होगी कि जिस पिस्तौल से चंद्र शेखर आजाद ने खुद को गोली मारकर बलिदान दिया था, वह पिस्तौल दुर्गावती ने ही आजाद दी थी। लाला लाजपत राय की मौत के बाद सॉन्जर्स और स्कॉर्ट से बदला लेने के लिए आतुर दुर्गावती ने भगत सिंह और उनके साथियों को टीका लगाकर भेजा गया था। इस हत्या के बाद उनके पीछे पड़ गये थे। दुर्गावती भगत सिंह को बचाने के लिए 18 दिसम्बर 1928 को वेश बदलकर भगत सिंह की पत्नी बनकर कलकत्ता मेल से यात्रा की थीं। सन् 1929 में जब भगत सिंह ने विधानसभा में बम फेंकने के बाद आत्मसमर्पण किया था, इसके बाद दुर्गावती ने लॉर्ड हैली की हत्या करने का प्रयास किया था, हालांकि वह बच गया था। दुर्गावती ने भगत सिंह और उनके साथियों की जमानत के लिए उन्होनें अपने गहने बेच दिए थे। इनको छुटाने के लिए एक योजना बनाई थीं। 28 मई 1930 को रावी नदी के तट पर साथियों के साथ बम बनाने के बाद परीक्षण करते समय वोहरा जी शहीद हो गए। उनके शहीद होने के बावजूद दुर्गा भाभी साथी क्रांतिकारियों के साथ सक्रिय रहीं।
पति की मृत्यु के बाद दुर्गावती ने भगत सिंह को छुड़ाने का कार्य अपने हाथ में ले लीं थीं। परंतु दुर्भाग्य से उस उस बम फैक्ट्री में विष्फोट हो गया था और दुर्गावती व साथियों को भूमिगत होना पड़ा। दुर्गावती के सारी संपत्ति जब्त कर ली गई, किन्तु वे अपने पथ पर अग्रसर होती रही। वे भगत सिंह की रिहाई के लिए गाँधी जी से भी मिली थीं, किन्तु कोई फायदा नहीं हुआ।
भगत सिंह व साथियों को फांसी लगने के बाद वे अत्यंत दुखी हुई थीं। उन्होनें अँग्रेजों से बदला लेने के लिए पुलिस कमिश्नर को मारने का निर्णय किया। उन्होंने अपना बच्चा अपने एक रिश्तेदार के पास छोड दिया था। अपनी इस योजना को कार्य रूप देने के लिए वे मुबंई जा पहुँची। एक रात काली साड़ी पहनकर वे कमिश्नर के बंगले पहुँच गई थीं, इस योजना में क्रांतिकारी पृथ्वी सिंह साथ में थे। कुछ अंग्रेज कमिश्नर के बंगले की ओर से आते दिखाई दिए, उसकी समय दुर्गावती आवेश में आकर उन्होंने तुरंत गोली चला दी परंतु उन लोगों में कमिश्नर नहीं था। गोली लगने से तीन अंग्रेज घायल हो गये थे। दुर्गावती वहाँ भागकर तुरंत मुंबई छोड़ दिया। काफी समय तक वो पुलिस से बचती रही, लेकिन बाद में गिरफ्तार हो गईं । सबूतों के अभाव के कारण उनको कोई सजा तो नहीं हुई किंतु फिर भी उनको नजरबंद रखा गया तथा बाद में उनको रिहा कर दिया गया।
दुर्गावती के सभी साथी शहीद हो चुके थे, वे बिल्कुल बेसहारा हो चुकी थी। अंत में थक हारकर बैठने के बजाय वे समाज सेवा में लग गई थीं। 1937 से 1982 तक वे लखनऊ में वे एक शिक्षा केन्द्र चलाती रहीं। उसके बाद वह गाजियाबाद में बस गई। 14 अक्तूबर 1999 में उनका स्वर्गवास हो गया। उनकी मौत एक गुमनामी की मौत रही है। उनका शवयात्रा में देश को कोई बड़ा नेता तो नेता बल्कि गाजियाबाद का भी कोई क्षेत्रिय नेता भी शामिल नहीं हुआ था।