– वीरेन्द्र सिंह राठौड़
18वीं सदी में उत्तर-भारतीय राज्यों पर मराठा हस्तक्षेप व पिंडारी लूटपाट से बरपी अराजकता से त्रस्त होकर राजाओं ने 19वीं सदी के आरम्भ में अंग्रेज़ों से संधियाँ कर ली| पर अंग्रेज़ों की कुटिलता व दखल क्षत्रिय स्वाभिमान को कैसे रास आता| 1830 तक राजस्थान के शेखावाटी में भी अंग्रेजों के विरूद्ध आक्रोश फैल गया| आए दिन विद्रोहियों और अंग्रेज़ सेनाओं की झड़पें होने लगी| किसी भी क्रांति का एक महत्वपूर्ण सामाजिक पैमाना उसमें नारी की पदचाप होता है| ऐसी एक घटना में क्रान्तिकारियों को पकड़ने व भोडकी (झुंझुनू) का गढ़ तोड़ने जब मेजर फॉरेस्टर की ब्रिगेड आई, तब पुरुष तो परुष रजपूताणियां भी तलवारें लिये फिरंगियों से भिड़ने को डट गई| फॉरेस्टर को लौटना पड़ा|

ये विरोध केवल शासक वर्ग तक सीमित नहीं था| शेखावाटी के आमजन अंग्रेजी सेना के घोड़ों के लिए पैसों की पेशकश पर भी हरी घास नहीं देते थे| ऐसे समय में लगभग 1935 ई० में राजस्थान में अंग्रेजों के विरूद्ध सतत क्रान्ति के बीज बोने वाले डूंगर (डूंग)जी, जवाहर (जुहार) जी पाटोदा सक्रिय हुए| दोनों ने अंग्रेज़ों से मुक़ाबले के लिए क्रांतिकारी दल बनाया जिसमें राजपूतों के अतिरिक्त जाट, मीणा व नाई आदि अनेक वर्गों के लोग थे| अंग्रेज़ों व उनके सहयोगियों पर इस दल के लगातार हमले होने लगे और उनका माल लूटा जाने लगा| बरसों से डूंग-जुहार की जोड़ी के लिए ख़ाक छान रहे अंग्रेज़ों का अनुमान था कि बार-बार लिखने के बावजूद रजवाड़ों और ठाकुरों की क्रांतिकारियों के प्रति सहानुभूति के कारण उन्हें पकड़ नहीं पा रहे|
अंततः 1846 ई० को अंग्रेज़ों ने डूंगर जी को धोखे से अकेले पकड़ कर आगरा क़िले की जेल में डाल दिया| जवाहर जी शेखावाटी, बीकानेर के कई साथियों सहित उन्हें छुड़ाने निकले| दल के दो सदस्य साधुवेश में आगरा क़िले के पास रहने लगे और एक दिन मौका देख डूंगर जी से मिलकर उन्हें छुड़ाने का आश्वासन दिया| बाकी लोग बारात के रूप में आगरा की ओर बढ़े| शक से बचने के लिए आगरा के नजदीक आने पर बारात में शोर हुआ कि दूल्हे के मामा मर गये। एक मेढ़े को मार कर अर्थी बना ली गई और बारात शव यात्रा में बदल गई| 1 जनवरी 1847 की रात को गुपचुप ही किले की बुर्ज पर सीढिया लगा ये दल भीतर घुसा और उतरने को रस्से लटका दिये। डूंगर जी ने पहले अन्य कैदियों की बेड़िया कटवाई, लेकिन बाहर निकलने की आपाधापी में कैदियों का शोर होने से प्रहरी जाग गए और लड़ाई में कई क्रांतिकारियों ने वीरगति पाई|
दोनों भाइयों सहित ये क्रांतिकारी दल फिर से अंग्रेज़ों के खिलाफ खड़ा हो गया| उन्होंने पहले अंग्रेज़ों से सांठगांठ में रहने वाले व्यापारियों के माल को और फिर नसीराबाद की प्रसिद्ध ब्रिटिश छावनी को भी लूट लिया| लोकगीतों अनुसार वो ये सारा धन गरीबों में बांटते हुए आगे बढ़ गए|
अंग्रेज़ शासन तंत्र में ऊपर तक हलचल मच गई| तीन बड़ी सेनाएं उनके पीछे लगाई गई तो ये दल दो भागों में बीकानेर और जैसलमेर के राजाओं की शरण में आ गया| दबाव बढ़ते देख जोधपुर की सेना ने डूंगर जी को पकड़ा और जोधपुर महाराजा ने इस वचन पर उन्हें अंग्रेज़ों को सौंपा कि मुक़दमा होने के बाद डूंगर सिंह जी को सकुशल वापस जोधपुर सौंप दिया जाएगा| यूँ तो इससे भी क्रांतिकारियों के प्रति सहानुभूति रखने वाली प्रजा संतुष्ट नहीं हुई| पर जब अंग्रेज़ सरकार ने डूंगर जी को वापस सौंपने से मना कर दिया तो स्थिति बिगड़ गई| रजवाड़ों के द्वारा सख्त विरोध को देख अंग्रेज़ डूंगर सिंह जी का कुछ नहीं बिगाड़ सके और अंत में उन्हें जोधपुर दरबार को सौंप दिया गया जहाँ वो आजीवन रहे|
जवाहर सिंह जी को भी बीकानेर के महाराजा ने अंग्रेज़ों को सौंपने से इनकार करते हुए उलटे अपने पुत्र को सौंपने का प्रस्ताव दिया| अंततः बीच का रास्त निकाल अंग्रेज़ों को लौटाया गया कि जवाहर जी बीकानेर से बाहर गतिविधि नहीं करेंगे| लम्बे समय तक बीकानेर रहने के बाद जवाहर सिंह जी का 1881 ई० अपने पैतृक स्थान में देहान्त हुआ|
दोनों क्रान्तिकारियों की स्मृति को कवि ने इन शब्दों में उतारा है :
जे कोई जणती राणियां, डूंग जिस्यो दीवाण।
तो इण हिन्दुस्तान में, पलतो नहीं फिरंगाण ।।
भोपों के लोकगीत भी भविष्य के क्रांतिकारियों को उनके शौर्य से ओतप्रोत करते रहे :
काची काया को बण्यो मानखों पेट दुख मर जाय जी।
नो गोरा का नाक काटिया बंगला दिन्या बाल जी।
एक बार मैं लूटू छावणी करूं मुलक में नाम जी।
साठ ऊंट माया सूं भरिया, कपड़ा भरया कतार जी।
मुख्य सन्दर्भ ग्रन्थ : शेखावाटी प्रदेश का राजनीतिक इतिहास – प्रोफ़ेसर रघुनाथ सिंह कालीपहाड़ी