– डॉ मनीष श्रीवास्तव – क्रान्तिदूत सीरीज़ के लेखक
शायद यह वही दिन था जब तय हो गया था कि नियति भगत सिंह और उनके साथियों के लिए क्या लिख कर आई है।
हिसप्रस, बनने के बाद ही राजनीतिक घटनाक्रम इतनी तेज़ गति से घूमा कि उसकी अंतिम परिणति, करीब तीन साल बाद, २३ मार्च १९३१ को भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव के बलिदान से हुई।

समय का चक्र तेज़ी से घूम रहा था। आज़ादी के दीवाने एक के बाद एक ऐसी घटनाओं को अंजाम दे रहे थे कि अँगरेज़ सरकार अपने घुटनों पर आई जा रही थी।
और फिर आई ३० अक्तूबर १९२८ की तारिख जिसके बाद के घटनाक्रम ने भगत सिंह को एक अलग ही पायदान पर खड़ा कर दिया.

३० अक्तूबर १९२८ को लाहौर में साईमन कमिशन का आगमन था। “नौजवान भारत सभा” व भगत सिंह ने लाला लाजपत राय के साथ अपने तमाम मतभेदों को भूलते हुए उनसे साईमन कमिशन के विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व करने का अनुरोध किया। लाला जी ने, हलकी सी हुज्जत के बाद नेतृत्व करना स्वीकार कर लिया।

उस दिन वह हुआ जिसकी उम्मीद भगत सिंह को भी नहीं थी।
पच्चीस हज़ार से अधिक जन समूह शंतिपूर्वक अपना जुलूस निकाल रहा था। “साईमन कमिशन” के खिलाफ “साइमन वापिस जाओ” के नारों से आकाश गूँज रहा था।
नौजवान पूरे जोश के साथ राष्ट्रीय भवन से ओतप्रोत होकर गाये जा रहे थे-
“हिन्दू हैं हम वतन है हिन्दुतान हमारा,
मुड़ जाओ साइमन कि बाकी जहाँ तुम्हारा।”


अभी स्टेशन पर कमीशन के अधिकारी आये नहीं थे लेकिन भीड़ स्टेशन के बाहर जमा होती जा रही थी। लाला जी स्टेज पर थे और उनको नवयुवकों ने पुलिस से बचाते हुए घेरा हुआ था।
जैसे ही कमीशन के सदस्य स्टेशन से बाहर आये, नौजवानों ने अधिकारीयों का रास्ता घेर लिया। यह तय किया गया था कि अधिकारीयों को स्टेशन से ही वापिस लौटा दिया जायेगा।
पुलिस ने पहले धक्का-मुक्की का सहारा लिया और भीड़ को हटाने की कोशिश की किन्तु जब भीड़ नहीं हटी तो विरोधी प्रदर्शन पर भारी लाठीचार्ज शुरू हो गया।
लाठीचार्ज का अगुआ था लाहौर का डी.एस.पी. सांडर्स जिसने अपने अधिकारी एस.पी. स्काट के आदेश पर उस भीड़ पर बर्बरतापूर्ण लाठीचार्ज शुरु कर दिया।
सांडर्स सीधा लाला जी पर झपटा। पहली लाठी पड़ी लाला जी की छाती पर, दूसरी कंधे पर और तीसरी सर पर। उसके बाद वो जानवरों की तरह लाला जी को मारता रहा। लोगों ने लाला जी को बचाने के लिए पुलिस पर हमला किया तो लाला जी ने सभी को रोक दिया और प्रदर्शन स्थगित कर दिया।
लाला जी गंभीर रूप से घायल हो गए थे लेकिन शाम को लाठीचार्ज विरोधी हजारों की जनसभा में लाला जी मंच पर आये और गरज पड़े–
“मेरे शरीर पर पड़ी हर लाठी, ब्रिटिश साम्राज्यवाद के कफन की अंतिम कील साबित होगी।“

१७ नवंबर १९२८ को लाला जी का इन चोटों के कारण देहांत हो गया और पूरे देश में सन्नाटा छा गया। उनके इस तरह से जाने की किसी को उम्मीद नहीं थी।
इस घटना ने आग में घी का काम कर डाला और पूरे देश में अब शोक और क्रोध के साथ एक आक्रोश भी था।

सी.आर.दास की विधवा वासंती देवी ने देश के युवाओं को ललकारते हुए हुंकार लगाईं –
“क्या कोई युवक इतने बड़े राष्ट्रीय अपमान का बदला नहीं लेगा?”
क्रांतिकारियों ने लाला लाजपत राय की मौत का जिम्मेदार पंजाब पुलिस के उपअधीक्षक स्कॉट को ठहराया और फिर लिया गया एक ऐसा फैसला जिसने भारत के क्रान्तिकारी आन्दोलन की दिशा ही बदल डाली।
हिसप्रस के लिए यह चुनौती को अनदेखा और अस्वीकार करना असंभव था। आज़ाद और भगत सिंह का खून खौल रहा था। यह तय कर लिया गया कि इस राष्ट्रीय अपमान का बदला अवश्य लिया जाएगा नहीं तो उनके जीवित रहने का कोई अर्थ ही नहीं।
भगत सिंह ने स्वयं अपनी आँखों से लाला जी पर लाठीचार्ज होते देखा था तो वह कुछ ज्यादा ही व्यथित थे।
अब बारी आ चुकी थी स्कॉट की जिसके लिए भगत सिंह, आज़ाद, सुखदेव एवं राजगुरु ने पूरी तैयारी कर ली थी।
जयगोपाल को स्कॉट की पहचान करनी थी और आज़ाद का काम पीछे रहकर निगरानी करने का था। लाहौर के एस.पी. कार्यालय पर स्काट के आने जाने पर निगाह रखने के लिए जयगोपाल को जिम्मेदारी दे दी गयी और वो अपने काम पर लगा गया।
आखिरकार वो दिन आ ही गया। १७ दिसंबर सायं चार बजे हैट पहनकर स्काट अपनी मोटर साईकल पर एस.पी. दफ्तर से निकला। जयगोपाल ने तुरंत इशारा किया। स्कॉट के ऊपर गोली चलानी थी भगत सिंह को लेकिन राजगुरु ने अपना ट्रिगर दबा दिया।
गोली आफिसर के लगी और वो मोटरसाइकिल से गिर पड़ा। जब उसका हेलमेट हटा तो पाया गया कि वो स्कॉट नहीं सांडर्स था। भगत सिंह दौड़ते हुए आये और उन्होंने अपनी पिस्तौल की बाली गोलियाँ भी सांडर्स पर खाली कर डाली।
आज़ाद ने जब देखा कि सिपाही चानन सिंह भगत सिंह व राजगुरु का पीछा कर रहा है तो आज़ाद ने सिपाही चानन सिंह को भी अपनी गोली का निशाना बना ही डाला।
१८ दिसंबर की रात को सारे लाहौर में पोस्टर छाये हुए थे –
“लाला लाजपत राय की मौत का बदला ले लिया गया। सांडर्स मारा गया।“

पूरे शहर, देश व दुनिया में इस खबर से सनसनी फैल चुकी थी। शहर से भाग निकलना अब ज़रूरी था। राजगुरु, सुखदेव व भगत सिंह दुर्गा भाभी के घर पहुँचें तो पता चला भगवती चरण दल के काम से कलकत्ता गए हुए थे।
कुछ पैसों का इंतजाम पूछने पर घर में रखे रुपए दुर्गा भाभी ने निस्संकोच रूप से सुखदेव को दे दिए लेकिन यह ना पूछा कि अचानक क्या हुआ है।
कलकत्ता की फर्स्ट क्लास कूपे की रेल टिकट खरीदी गयी। भगत सिंह सूट-बूट, ओवरकोट और हैट पहन कर डब्बे में दाखिल हुए। उनकी पत्नी के रूप में थीं दुर्गा भाभी और बच्चे शची को सँभालते हुए “नौकर” वेष में थे राजगुरु।
उधर आज़ाद साहब दुसरे डब्बे में एक पंडित जी के रूप में रामनामी दुशाला पहने बैठ हुए थे।
ट्रेन, अंग्रेजों को अंगूठा दिखाते हुए कलकत्ता जाने के लिए तैयार थी।
सांड़र्स की हत्या ने ब्रिटिश अधिकारियों की जड़ें हिला डाली। अंग्रेजो की लाख कोशिशों के बाद भी भगत सिंह, राजगुरु व अन्य साथी पुलिस की नजरों में धूल झोंक कर लाहौर से गायब हो चुके थे।
अंग्रेजों को इन घटनाओं को रोकने का एक ही तरीका समझ आया और वो था “पब्लिक सेफ्टी बिल” और “ट्रेड़ डिस्प्यूट्स बिल” नामक दमनकारी क़ानूनो को पास करना।
अंग्रेजो को उम्मीद थी की इस बिल से भारत में क्रांति की जो चिंगारी भड़कने लगी है उसे ज्वाला बनने से पहले ही बुझा दिया जाए।
क्रांतिकारियों को अंग्रेजो की इस मंशा की भनक लग जाती है और उसके बाद होता है ८ अप्रैल, १९२९ को सेंट्रल असेम्बली बमकांड का धमाका।

क्रांतिकारी सरदार भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त बम फेंकने के बाद कायरो की तरह वहाँ से भागते नहीं है और स्वेच्छा से अपने को गिरफ्तार करा देते हैं।
भगत सिंह चाहते तो भाग सकते थे, किसी और को भेज सकते थे किन्तु नहीं, वो एक ऐसी मिसाल छोड़ कर जाना चाहते थे कि अँगरेज़ मजबूर हो जाएं।

भगत सिंह अब लाहौर जेल में थे। आज़ाद को यह मंज़ूर नहीं था कि उनका भाई आज़ाद न रहे। अब भगत सिंह को जेल से बाहर लाना ही उनके एक मात्र मकसद था। झाँसी से विश्वनाथ को बुलाया गया और भगवती चरण वोहरा को बम की जिम्मेदारी दी गई।
तारीख तय हुई एक जून १९३० जिस दिन भगत सिंह को जेल से छुड़ाना था। लाहौर की बहावलपुर वाली कोठी में भगवती चरण, सुखदेव, यशपाल, मदनलाल और विश्वनाथ आदि क्रांतिकारी साथी इकट्ठे हो गए।
भगवती को बम बनाने की जिम्मेदारी दी गयी। कानपुर में बमों के खोल को और दिल्ली तथा रोहतक में बमों के मसालों को पहले से तैयार कर लिया गया था।
अब सबसे ज़रूरी काम रह जाता था और वो था बमों का परीक्षण।लेकिन भगत सिंह को छुड़ाने से दो दिन पहले ही एक दुर्घटना हो जाती है। उन्ही बमों का परीक्षण करते हुए भगवती बाबू अपने साथियों की जान बचाते हुए,अपनी वफादारी सिद्ध करते हुए लालाजी के पास और अपने साथियों से बहुत दूर चले जाते हैं।
लाहौर की बहावलपुर वाली कोठी में विश्वनाथ ने सफ़ेद चादर में लिपटे भगवती को जब अपनी गोद से ज़मीन पर रखा था तो उस रात पहली बार किसी ने आज़ाद को रोते हुए देखा था। दुर्गा भाभी की दुनिया लुट चुकी थी लेकिन वो दीवार से टिकी शांत खड़ी थी। उनकी आंखों से एक आंसू नहीं निकला था उस रोज़।
आज़ाद सूख चुकी आँखों वाली दुर्गा भाभी के पास आये और बोले, “भाभी दायां हाथ कट गया है मेरा”।
दुर्गा भाभी सूनी आँखों से देखती रहीं थी आज़ाद को ।
“कुछ कह कर गया मेरा वीरा” सुखदेव बोले।
“कह कर गए हैं, भगत सिंह को छुड़ा कर लाना है” विश्वनाथ की आवाज़ भर्रा रही थी। आज़ाद फिर फफक उठे।
भगवती भाई की अंतिम इच्छा को पूरा करने के लिए आज़ाद अपने साथियों के साथ पहली तारिख को जेल के बाहर पहुंचे। भगत सिंह पुलिस के पूरे लाव लश्कर के साथ बाहर आये। इशारे के दौर पर वहाँ खड़े विश्वनाथ ने बांसुरी बजा दी।
भगत सिंह ने देखा और मुस्कुरा कर मुंह फेर लिया और भगत सिंह को छुड़ाने का कार्यक्रम परवान नहीं चढ़ पाया।
भगत सिंह बाहर नहीं आना चाहते थे शायद। उनको पता था कि बलि दिए बिना भारत माँ प्रसन्न नहीं होगी।
आज़ाद और उनके साथी लौट कर वापिस आ गए।
२६ अगस्त, १९३० को अदालत ने भगत सिंह को के अंतर्गत अपराधी सिद्ध करते हुए, ७ अक्तूबर, १९३० को अपना निर्णय सुना दिया।
भगत सिंह, सुखदेव तथा राजगुरु को वो तोहफा मिला जिसके लिए वो बेताब थे।
सच कहूं तो बेताबी की सारी हदें तो राजगुरु ने पार कर रखी थीं।


आखिरकार फांसी की सजा सुना ही दी गयी गई तीन मतवालों को।
भगत सिंह की फांसी की माफी के लिए प्रिवी परिषद में अपील की गई, तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष पं. मदन मोहन मालवीय ने वायसराय के सामने सजा माफी के लिए अपील दायर की।
कुछ समय बाद आम जनता की ओर से भी
वायसराय के सामने सजा माफी के लिए अपील दायर की गयी लेकिन किसी अपील का कुछ हल नहीं निकला।
भगत सिंह चाहते भी यही थे क्यूंकि यह सारी माफ़ी की अपीलों में भगत सिंह की इच्छा थी ही नहीं।
भगत सिंह कभी नहीं चाहते थे कि उनकी सजा माफ हो। उनको माफ़ी नहीं चाहिए थी, उनको तो अपना देश आज़ाद चाहिए था।
२३ मार्च १९३१ को यही तीन परवाने हँसते-खेलते फांसी के फंदे को अपने गले का हार बना कर अपनी बलि देकर चले गए।