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धनुर्वेद विद्या क्या है? अग्निपुराण में धनुर्वेद के पांच अंग यन्त्रमुक्त, पाणिमुक्त, मुक्तसंधारित, अमुक्त और बाहुयुद्ध – पाँच प्रकार का धनुर्वेद होता है। शस्त्र और अस्त्र ये दो भेद कहे हैं। शस्त्रास्त्रों के भी ऋजु और मायायुक्त दो भेद होते हैं।

तरकस से बाण को निकालना आदान कहलाता है। बाण को धनुष की प्रत्यञ्चा पर चढ़ाना सन्धान, लक्ष्य पर बाण को फेंकना मोक्षण, अल्पबलवाले लक्ष्य पर छोड़े गये अस्त्र को वापस लौटाना विनिवर्तन, विभिन्न पैंतरों में खड़े होकर धनुष पकड़ना, डोरी को खेंचना और बाण छोड़ना स्थान कहलाता है। तीन या चार
अङ्गुलियों से धनुष को पकड़ना मुष्टि, अंगूठा तर्जनी या मध्यमा अंगुली से डोरी को खेंचना प्रयोग, स्वतः या दूसरे से प्राप्त होनेवाले डोरी के आघात को दस्ताना पहनकर निवारण करना, कवच पहनकर दूसरों द्वारा छोड़े गये बाणों को रोकना अथवा सामने से आते हुए बाण को अपने बाण द्वारा काट देना
प्रायश्चित्त कहलाता है। इसी भाँति घूमते हुए वाहन से छोड़े गये बाण का स्वयं भी रथारूढ़ होकर वेधना मण्डल और शब्द के ऊपर बाण छोड़ना या एकसाथ अनेक लक्ष्यों पर शर-सन्धान करना ये सब रहस्य के अन्तर्गत आते हैं।
गुणागुणः- वृद्मुष्टनी, वज्रुमुष्टी, सिंहकर्णी, मत्सरी और काकर्णी—ये पांच मुष्टित है पताका- जहाँ पर तर्जनी सीधी रहे और अंगूठे के मूल में मुड़े, उसे पताका कहते हैं। इसे बन्दूक की गोली चलाने में प्रयुक किया जाता है सिंहकर्णमुष्टि में यदि तर्जनी फैली हुई हो तो उसे पताकामुष्टि

कहते हैं, इससे नलिका नामक स्थूलकाण्ड छोड़ा जाता है वज्रमुष्टि // जब तर्जनी और मध्यमा के मध्य में अङ्गुष्ठ लगाकर धनुष की प्रत्यञ्चा खेंची जाये तो उसे वज्रमुष्टि कहते हैं। इससे स्थूल नाराच बाण छोड़ा जाता है ॥ तर्जनी से अनूठे को आवेष्ठित (ढककर) करके अन्य उंगलियां हथेली की ओर
लगी हुई रहती हैं, इसे बुद्धिमानों ने वज्रमुष्टि कहा है। इससे दृढ़ लक्ष्य का भेदन किया जाता है सिंहकर्णी:-अंगूठे के मध्य भाग और तर्जनी के अग्रभाग से प्रत्यञ्चा को पकड़ना सिंहकर्णमुष्टि कहलाता है। इसका प्रयोग दृढ़ लक्ष्य भेदन में किया जाता है अंगूठे से तर्जनी के नख को दबाये, शेष
तीन उंगलियां हथेली की ओर मुड़कर स्थिर रहें। इसे सिंहकर्णमुष्टि कहते हैं ॥