डॉ मनीष श्रीवास्तव
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भुट्टो पाकिस्तान को परमाणु राष्ट्र बनाने की अपनी महत्वाकांक्षा के बारे में खुलकर शेखी बघारते थे। मई 1974 में पोखरण में भारत के पहले परमाणु परीक्षण के बाद वह और भी मुखर हो गए थे। उस समय तक, सऊदी अरब, लीबिया और ईरान से फंड आना शुरू हो गया था।
बात बहुत पुरानी नहीं है जब ढाका में मुँह की खाए हुए सिर्फ पाँच ही दिन हुए थे। पाकिस्तान के राष्ट्रपति के रूप में कार्यभार संभाले हुए भी जुल्फिकार भुट्टो को एक महीना हुआ था जब मुल्तान में भुट्टो ने एक गुप्त बैठक बुलाई थी।
उस गुप्त मीटिंग में करीब चार सौ लोग उपस्थित थे, जिनमें कुछ विदेशी भी शामिल थे। मूल रूप से क्वेटा में आयोजित होने वाली बैठक का स्थान विद्रोही बलूचों के कारण बदलना पड़ा था। इस मीटिंग का कारण किसी को भी नहीं पता था।
मुर्ग मुसल्लम आदि तोड़ने के बाद जब इन्तिज़ार की इंतिहा हो गयी थी तब भुट्टो ने अपने परमाणु वैज्ञानिकों, सलाहकारों और समर्थकों के समक्ष एक बम फोड़ा-
“हम कितनी जल्द परमाणु बम बना सकते हैं?”
“कम से कम पाँच साल!”
“ना-ना!” भुट्टो ने हँसते हुए कहा।
“कोई और कुछ कहाँ चाहेगा?” भुट्टो ने सभी की ओर देखा।
“तीन साल!” एक आवाज़ आयी।
“सामने आएँ आप!”
एक युवा वैज्ञानिक था जिसने दावा किया था कि वह तीन साल में परमाणु बम बना कर दिखा सकता है। शर्त यही है कि उसे सारी सुविधाएं मुहैया करा दी जाएँ।
भुट्टो उस वैज्ञानिक से देर रात तक बात करते रहे थे और फिर अगले ही दिन लीबिया के लिए उड़ गए थे। लीबिया जाने का एक ही मकसद था और वो था अपने दोस्त कर्नल गद्दाफी को धन के लिए उसे फुसलाना।
कुछ ही दिनों बाद भुट्टो “इस्लामिक कार्ड” वाले तुरुप के इक्के का इस्तेमाल कर ईरान और सऊदी अरब के साथ-साथ मिस्र सहित एक दर्जन पश्चिम एशियाई देशों का भी दौरा करते हैं।
निस्संदेह भुट्टो एक ऐसे भविष्य को देख रहे थे जहाँ वह पाकिस्तान पर शासन करते हुए मुस्लिम दुनिया के ऐसे सर्वशक्तिशाली नेता होंगे जिनके पास परमाणु हथियार हैं।
भौतिक विज्ञानी अब्दुस सलाम और नौकरशाह इशरत उस्मानी जैसे परमाणु हथियार का विरोध करने वाले या केवल अनिच्छा से इसका समर्थन करने वालों को इस मीटिंग के बाद तुरन्त दरकिनार कर दिया गया था।
सलाम को बाद में यूके में जाकर शरण लेनी पड़ी क्योंकि वह अहमदिया थे। भुट्टो ने उन्हीं दिनों एक कानून पारित किया था जिसने अहमदिया समुदाय को गैर-इस्लामी घोषित कर दिया था। उस्मानी की जगह लेते हैं मुनीर अहमद खान और कुछ ही दिन बाद भुट्टो के पसंदीदा अब्दुल कदीर खान मुनीर की जगह आ जाते हैं।
यही वही ऐतहासिक समय था जब भुट्टो भारत के साथ “हज़ार साल की जंग” की तैयारी कर रहे थे। वो इस जंग के लिए पूरी तरह से कमर कस चुके थे भले ही इस्लामिक बम पाने के बदले पाकिस्तानियों को घास खाना पड़े।
जब भारत अपनी जीत का जश्न मना रहा था, भुट्टो भारत के साथ अगले दौर की ऐतहासिक जंग की तैयारी में जुट चुके थे। एक ऐसे जंग जो आने वाले समय में बड़े-बड़े देशों की वैचारिक दिशा ही बदल देने वाली थी।
1971 के युद्ध के तुरंत बाद भुट्टो की असामयिक अहंकारी अभिलाषाएं धीरे-धीरे वैश्विक खुफिया एजेंसियों की निगाहों में आ चुकी थीं। उनकी महत्वाकांक्षाएं, क्रूरता और बेईमान राजनीतिक चतुराई कुछ ही साल पहले जगजाहिर हो चुकी थी।
अयूब खान तख्तापलट से ठीक पहले 1958 में राष्ट्रपति इस्कंदर मिर्जा की सरकार में वाणिज्य मंत्री के रूप में बमुश्किल तीस साल की उम्र में भुट्टो पाकिस्तान के सबसे कम उम्र के कैबिनेट मंत्री बन चुके थे।
दो साल बाद, उन्हें जल और बिजली, संचार और उद्योग मंत्री बनाया गया। भुट्टो ने 1960 में सिंधु जल संधि पर बातचीत करने में अपने राष्ट्रपति की सहायता की और अगले साल सोवियत संघ के साथ एक तेल अन्वेषण समझौते पर बातचीत की जो पाकिस्तान को आर्थिक और तकनीकी सहायता के लिए बेहद महत्वपूर्ण था।
आने वाले दिनों में भुट्टो ने खुद को अयूब की आंतरिक मंडली में शामिल कर लिया था और 1963 आते-आते भुट्टो विदेश मंत्री के रूप में उनके विश्वासपात्र और सलाहकार बन चुके थे।
उस वर्ष मार्च में, भुट्टो ने चीन-पाक फ्रंटियर समझौते में बड़ी भूमिका निभाई थी। इस समझौते द्वारा पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर (पीओके) के 750 वर्ग किलोमीटर हिस्से को चीन को उपहार में दे दिया गया था।
यह 1962 के भारत-चीन युद्ध के तुरंत बाद की बात है और यह स्पष्ट होता जा रहा था कि भुट्टो का दिमाग एक विशेष दिशा में काम कर रहा था। भुट्टो के वरिष्ठ नेताओं और सैन्य अधिकारियों को इस बात की ज़रा भी भनक नहीं थी कि भुट्टो के दिमाग में क्या खिचड़ी पक रही है।
यह भुट्टो ही थे जिन्होंने अयूब को पाकिस्तानी सेना द्वारा समर्थित आतंकियों की मदद से कश्मीर को आज़ाद कराने के लिए भारत के खिलाफ ऑपरेशन जिब्राल्टर शुरू करने की सलाह दी थी। इस नाकाम कोशिश में मुँह की खाने के बाद भुट्टो ने ज़रा भी देर ना करते हुए खुद को अयूब खेमे से बाहर कर लिया था। इसके तुरंत बाद 1966 की ताशकंद घोषणा के साथ ही भुट्टो ने इस्तीफा देते हुए अपनी खुद की राजनीतिक पार्टी पाकिस्तान पीपल्स पार्टी बना डाली थी।
भुट्टो पाकिस्तान को परमाणु राष्ट्र बनाने की अपनी महत्वाकांक्षा के बारे में खुलकर शेखी बघारते थे। मई 1974 में पोखरण में भारत के पहले परमाणु परीक्षण के बाद वह और भी मुखर हो गए थे। उस समय तक, सऊदी अरब, लीबिया और ईरान से फंड आना शुरू हो गया था। भुट्टो अपने दोस्त राष्ट्रों के सामने यही दावा और दिखावा करते थे कि पाकिस्तान के परमाणु प्रयास भारतीय परीक्षण के कारण थे।
भुट्टो 1971 के मध्य में उत्तर कोरिया से भी डिलीवरी सिस्टम और तोपखाने, रॉकेट लॉन्चर और गोला-बारूद आदि के लिए संपर्क करते हैं। साथ ही कुछ ही दिनों के बाद एक नया कदम उठाते हुए भुट्टो पाकिस्तान इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूक्लियर साइंस एंड टेक्नोलॉजी (पिनटेक) द्वारा परमाणु अनुसंधान से हटकर काम करने की आज्ञा देते हैं।
1940 के दशक में अमेरिका के मैनहट्टन प्रोजेक्ट की भांति ही भुट्टो अब पाकिस्तान के राष्ट्रपति के रूप में परमाणु हथियारों पर अनुसंधान और विकास के लिए 1972 से शुरू होने वाले परमाणु प्रतिरोध के अपने कार्यक्रम को तेज़ करते जा रहे थे।
अपनी किताब “इफ आई एम असैसिनेटेड” में भुट्टो ने दावा किया था कि अगर भुट्टो को उखाड़ फेंका नहीं गया होता, वह इस्लामिक सभ्यता को “पूर्ण परमाणु क्षमता” देकर हिंदू, ईसाई और यहूदी सभ्यताओं के समकक्ष ला खड़ा करते। यह बात तब की है ज़िया उल हक़ ने उन्हें बंदी बना रखा था।
भुट्टो कहते थे कि जब उन्होंने पाकिस्तान के परमाणु ऊर्जा आयोग का प्रभार संभाला था तो यह एक दफ्तर के साइनबोर्ड के अलावा कुछ नहीं था। यह केवल नाम के लिए परमाणु ऊर्जा आयोग था। वो हर भाषण में गर्व के साथ यही कहते थे कि मैंने अपने देश के लिए परमाणु क्षमता हासिल करने के काम में लगन और दृढ़ संकल्प के साथ अपनी पूरी ऊर्जा लगा दी है।
समय रेखा देखने से यही पता चलता है कि भुट्टो बम की खोज में बहुत पहले से थे। उनके द्वारा पाकिस्तान ने अपने परमाणु अनुसंधान को मजबूत करने के लिए पहले ही कदम उठा लिए थे। इशरत उस्मानी को 1960 में पाकिस्तान परमाणु ऊर्जा आयोग (PAEC) का अध्यक्ष नियुक्त किया गया था। यह वही साला था जब भुट्टो खनिज और प्राकृतिक संसाधन मंत्री बने थे। इसके साथ ही PINSTECH और कराची परमाणु ऊर्जा परिसर जैसे कई महत्वपूर्ण संस्थानों की स्थापना की जा चुकी थी।
यह उस्मानी की योजना थी जिसने लगभग छह सौ युवा वैज्ञानिकों को प्रशिक्षण के लिए विदेश भेजा गया था, जिनमें से लगभग सौ डॉक्टरेट के साथ लौटे थे।
अपनी पुस्तक ‘द मिथ ऑफ इंडिपेंडेंस’ (1969 में प्रकाशित) में, भुट्टो ने अपने उपनिवेश विरोधी विचारों को प्रसारित किया था। यह सब कहते हुए भी उनका मुख्य विषय यह था कि पाकिस्तान को औद्योगिक राष्ट्रों और परमाणु-सशस्त्र भारत के साथ खड़े होने में सक्षम होने के लिए परमाणु हथियार हासिल करना ही चाहिए।
जब चीन ने 1964 में अपना पहला परमाणु बम परीक्षण किया था तब फील्ड मार्शल अयूब खान और विदेश मंत्री के रूप में भुट्टो ने 1965 की शुरुआत में तुरंत चीनी नेतृत्व से मिलने के लिए दवाब डालना शुरू कर दिया था। प्रीमियर झोउ एनलाई के साथ एक बैठक के बाद, भुट्टो ने मैनचेस्टर गार्डियन को अपना वह प्रसिद्ध बयान दिया था-
“अगर भारत बम बनाता है, तो हम घासफूस खाएंगे, भूखे भी रहेंगे, लेकिन हम अपना परमाणु बम बना कर रहेंगे। हमारे पास इसके अलावा और कोई चारा नहीं है।”
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री की पृष्ठभूमि से वाकिफ और उनकी योजनाओं से कुछ हद तक सावधान, भारत की खुफिया एजेंसी रॉ को पता था कि हालांकि एक युद्ध समाप्त हो गया था लेकिन शायद एक और घातक युद्ध शुरू होने वाला था। रॉ की तरफ से पाकिस्तान की परमाणु योजनाओं का पता लगाने के लिए काम जारी था।
खुफिया अधिकारी यह पता लगाने के लिए दुनियाभर में घूम रहे थे कि पाकिस्तानी सामग्री और विशेषज्ञता कैसे और कहां से हासिल कर रहे थे। परमाणु क्षमता हासिल करने में ईरान के शाह की बढ़ती दिलचस्पी एक बड़ी चिंता का विषय बन चुकी थी। भविष्य के ईरान-पाकिस्तान सहयोग की संभावना कई ख़ुफ़िया एजेंटों की रातों की नींद हराम किए हुई थी।
भुट्टो, गद्दाफी और सऊदी राजशाही जैसे मुस्लिम विश्व नेताओं को लुभाने के लिए कुछ भी करने को तैयार थे। यहाँ तक कि उन्होंने पाकिस्तान में अहमदिया समुदाय को भी गैर-इस्लामी घोषित कर दिया था।
भुट्टो का अगला दिलेरी वाला कदम था अफगानिस्तान में दखलंदाजी!
रॉ के बड़े अधिकारी भारत सरकार के दबाव में थे कि वे यह पता करें कि पाकिस्तानी परमाणु हथियार आखिर कहाँ से ख़रीद रहे थे। यहाँ तक कि संगठन में मात्र इसी कार्य के लिए नए रंगरूटों को भी भर्ती किया गया था जो दक्षिण दिल्ली के एक गुप्त तहखाने में खुद को अंतरराष्ट्रीय परमाणु जासूसी की दुनिया में सेंध लगाने के लिए ट्रेनिंग पा रहे थे।
यह एक ऐसा समय था जब परमाणु ऊर्जा का उपयोग कुछ देशों का विशेषाधिकार था। जासूसों के लिए इस क्षेत्र में ज्यादा जानकारी भी उपलब्ध नहीं थी और जितनी थी भी वो अस्पष्ट थी।
रॉ मुख्यालय में छिटपुट रिपोर्ट आ रहीं थी, एजेंट अनुमान लगा रहे थे लेकिन कोई ठोस सबूत हाथ नहीं आ रहा था। संदिग्ध व्यक्तियों के मात्र नाम सामने थे। कुछ स्थानों के नाम भी सामने आये जहां कोई गतिविधि हो सकती थी। किन उपकरणों में रूचि है यह पता लगने लगा था।
प्रारंभिक धारणा थी कि पाकिस्तान प्लूटोनियम ढूंढ रहे हैं लेकिन इस बात की भी कोई निश्चित खुफिया जानकारी नहीं मिल पा रही थी। सब कुछ दिशाहीन सा होता जा रहा था और सामने आई सूचना के टुकड़े आपस में मिलकर कोई भी तस्वीर नहीं बना पा रहे थे।
अब होता यह है कि अमेरिका के दबाव में, फ़्रांस 1976 में परमाणु पुनर्संसाधन संयंत्र के लिए हथियार-ग्रेड प्लूटोनियम का उत्पादन करने के लिए भुट्टो के साथ हस्ताक्षरित एक परमाणु समझौते को ख़ारिज कर देता है। लेकिन इससे पाकिस्तान के दृढ़ संकल्प या परमाणु हथियार प्रौद्योगिकी हासिल करने के उसके प्रयासों पर कोई फर्क नहीं पड़ता है।
नाराज़ होकर अमेरिकी राजदूत भुट्टो को चेतावनी भी देते हैं कि जनाब अगर वह अपनी परमाणु महत्वाकांक्षा पर कायम रहे, तो वह लंबे समय तक सत्ता में नहीं रहेंगे। वही होता है। मार्च 1977 में चुनाव होते हैं और उसी साल जुलाई में ज़िया भुट्टो का तख्ता पलट देते हैं।
पाकिस्तान में पीएईसी के प्रमुख मुनीर अहमद खान, जिन्होंने पाकिस्तान का अधिकांश परमाणु बुनियादी ढांचा खड़ा किया था और अब नए राजा के आ जाने से परमाणु कार्यक्रम के सिंहासन के नए दावेदार अब्दुल कदीर खान, जो एक धातुविज्ञानी थे के बीच कई मामलों में असहमति थी। इसी बीच सेना द्वारा भुट्टो को फांसी दिए जाने के बाद भी पाकिस्तान का परमाणु सपना टूटा नहीं था। बस थोड़ा कठिन और अधिक जटिल हो गया था।
1970 के दशक में पाकिस्तान की सभी परमाणु अधिग्रहण गतिविधियाँ यूरोप में केन्द्रित थीं। कुछ समय के लिए, यह मान लिया गया था कि पाकिस्तान बम के लिए प्लूटोनियम मार्ग का अनुसरण कर रहा है। ख़ुफ़िया एजेंटों द्वारा 1975 में, बेल्जियम और फ्रांसीसी राजनयिक नंबर प्लेट वाली कारों को अक्सर देर रात अब्दुल कदीर के एम्स्टर्डम के शिफोल हवाई अड्डे के करीब बसे हुए एक मामूली घर के बाहर देखा जाता था।
आगंतुकों में से एक सिद्दीकी अहमद बट थे, जिन्हें पाकिस्तान दूतावास में भुट्टो द्वारा विज्ञान और प्रौद्योगिकी में परामर्शदाता के रूप में तैनात किया गया था। (यही वह नौजवान था जिसने जनवरी 1972 की ऐतिहासिक मुल्तान बैठक में भुट्टो को यह दावा कर प्रभावित किया था कि वह तीन साल के अंदर बम बना सकते है।)
उस समय, खान परमाणु निर्माता URENCO के साथ काम कर रहे थे। वहां उनके सहयोगी फोटोग्राफर फ्रिट्स वीरमन ने कंपनी को चेतावनी भी दी थी कि खान सेंट्रीफ्यूज में अनुचित रुचि दिखा रहे हैं।
कहानी यह है कि डच खुफिया एजेंसी खान को गिरफ्तार करना चाहती थी लेकिन अमेरिका की सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी (CIA) ने उन्हें मना कर दिया क्योंकि वह उसकी गतिविधियों पर नजर रखना चाहती थी। अपनी गिरफ्तारी के डर से खान दिसंबर 1975 में पाकिस्तान भाग जाते हैं।
आर्थिक मामलों के डच मंत्री रूड लुबर्स अमेरिका के इन इरादों के बारे संतुष्ट नहीं थे कि अमेरिका वास्तव में सोवियत संघ के खिलाफ काउंटर-पॉइंट के रूप में पाकिस्तान की मदद करना चाहता था। आगे चलकर 1980 के दशक में बाद की अमेरिकी और पाकिस्तानी गतिविधियों ने साबित कर दिया कि अमरीका सही कह रहा था।
हॉलैंड में अपने मामूली अपार्टमेंट से शुरू हुआ कदीर खान का सफ़र इस्लामाबाद में मार्गल्ला रोड पर एक महंगे घर में जाकर रुकता है। कदीर के दिल में क्या चल रहा था इसको जानने के लिए मालूम होना काफी है कि उनके घर में विभाजन के समय भारत छोड़ने वाली एक जलती हुई ट्रेन की एक बड़ी पेंटिंग लगी हुई थी।
कदीर खान ने बम परियोजना में शामिल होने के लिए भुट्टो की पेशकश को स्वीकार करते हुए कहा था कि “अब मैं अब हिंदू कमीनों को देखूंगा।”
समय भाग रहा था और पाकिस्तान धीरे-धीरे अपने इरादों में कामयाब होता दिख रहा था। देश की नयी राजनीतिक परिस्थियों के चलते अलग-थलग पड़ा रॉ अभी तक कामयाब नहीं हुआ था। इसे उस समय के कट्टर गांधीवादी प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई से कोई समर्थन या सहानुभूति प्राप्त नहीं थी। देसाई के अनुसार देश के खतरों के बारे में खुफिया जानकारी से कोई फायदा नहीं होने वाला था।
रॉ की लगातार कोशिशों के बाद भी वास्तव में हाथ में बहुत ही कम जानकारी थी। ऐसा लगता था कि पाकिस्तान में प्लूटोनियम मार्ग वाले फ्रांसीसी सहायता प्राप्त चश्मा संयंत्र को 1978 में अवरुद्ध कर दिया गया था। लेकिन पाकिस्तान के लगातार प्रयासों को ऐसा प्रतीत होता था कि अब पाकिस्तानी यूरेनियम मार्ग की ओर देख रहे हैं।
संशय इसलिए बढ़ता जा रहा था कि पाकिस्तानी 1975 की शुरुआत में ही परमाणु कार्यक्रम में व्यस्त हो गए थे लेकिन खुले बाजार में गैस सेंट्रीफ्यूज संयंत्र के लिए घटकों को हासिल करने की गति में 1976 में तेजी आयी थी।
भले ही परमाणु उपकरण एक प्रतिबंधित वस्तु थी लेकिन चूंकि अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंध पूरी तरह से लागू नहीं थे, इसलिए कुछ पुर्जे और सहायक उपकरण प्राप्त करना संभव था। इस प्रकार, विशेष रोटर्स के साथ 6500 विशेष रूप से बनी स्टील ट्यूब को यूरेनियम अपकेंद्रित्र संयंत्र नीदरलैंड में खरीदा जा सकता था।
डचों की सुरक्षा में कमी के कारण कदीर खान सेंट्रीफ्यूज के लिए यूरेनियम संवर्धन तकनीक की चोरी में सफल हो जाते हैं। कदीर कोई सीखे-सिखाये जासूस नहीं थे। वो बस किस्मत के धनी थे, जो सही समय पर सही जगह पर उपस्थित थे। उन दिनों यूरोप में चल रहे मुक्त बाजार पूंजीवाद की वजह से पाकिस्तानी महत्वपूर्ण उपकरणों की खरीदारी आराम से कर रहे थे।
कुछ जर्मन कंपनियों ने पकिस्तान को विशेष रूप से निर्मित एल्यूमीनियम भागों की अज्ञात संख्या के साथ वैक्यूम पंप और गैस शोधन उपकरण मुहैया कराये। तीन संयंत्रों की आपूर्ति के लिए कराची की एक कंपनी, अरशद अमजद और अरबिड प्राइवेट लिमिटेड के साथ एक जर्मन व्यवसायी द्वारा तीन अनुबंध तैयार किये जाते हैं।
ऐसा कहा जाता है कि इन तीन संयंत्रों ने मिलकर ही यूरेनियम हेक्साफ्लोराइड, जो कि यूरेनियम संवर्धन के लिए आवश्यक था, का उत्पादन किया था।
ऐसा भी लगता है कि फ्रांस ने पहले 10,000 धातु धौंकनी की आपूर्ति पर रोक लगा दी थी, जिसका एकमात्र उपयोग गैस सेंट्रीफ्यूज रोटरों को स्थिर करने में था, लेकिन फिर बेल्जियम के एक उप-ठेकेदार को रंगों के साथ इसकी आपूर्ति करने की अनुमति दी, ताकि पाकिस्तान स्वयं धौंकनी का निर्माण कर सके।
बहती गंगा में हाथ धोते हुए स्विस भी पाकिस्तान को परमाणु के इस कारोबार में शामिल हो गए। यह असली पूंजीवाद था, जिसका एकमात्र मकसद रणनीतिक परिणामों की परवाह किए बिना और नियमों को तोड़-मरोड़ कर लाभ प्राप्ति था।
लंदन क्लब (परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह का अनौपचारिक नाम, जो पहली बार 1975 में लंदन में मिला था) द्वारा सूचीबद्ध प्रतिबंधों में खामियों को जानते हुए, पाकिस्तानी बेहद चालाकी से आगे बढ़ते जा रहे थे।
“द इस्लामिक बम” के लेखक स्टीव वीसमैन और हर्बर्ट क्रॉस्नी उन लोगों में शामिल हैं जिन्होंने 1970 के दशक और उसके बाद की घटनाओं का खुलासा अपनी किताब में किया है।
वे लिखते हैं कि 1977 में किसी समय तीन पाकिस्तानियों ने सेंट्रीफ्यूज संवर्धन संयंत्र के लिए अत्यधिक विशिष्ट वाल्व खरीदने की इच्छा से वकुम एपरेट टेक्निक से संपर्क किया।
लंदन क्लब के नियमों ने उन सामग्रियों की बिक्री को प्रतिबंधित कर दिया जो परमाणु हथियारों के विकास के लिए नेतृत्व कर सकते थे। अब ट्रिगर सूची में सेंट्रीफ्यूज सूचीबद्ध थे लेकिन वाल्व नहीं थे।
स्विस को बेचने में कोई परेशानी नहीं थी। अपनी इस सफलता से प्रोत्साहित होकर, पाकिस्तानी 1978 की गर्मियों में सेंट्रीफ्यूज में यूरेनियम हेक्साफ्लोराइड गैस के लिए एक गैसीकरण और ठोसकरण इकाई खरीदने के लिए और फिर अपकेंद्रित्र प्रक्रिया के अंत में इसे वापस एक ठोस में बदलने के लिए एक अन्य स्विस कंपनी, CORA इंजीनियरिंग से संपर्क करते हैं।
बर्न इसे भी मंजूरी दे देता है क्योंकि यह भी लंदन क्लब के नियमों में सूचीबद्ध नहीं था। अंततः, इस संयंत्र को तीन हरक्यूलिस सी-130 परिवहन विमानों में पाकिस्तान भेजा जाता है।
ब्रिटेन में, पाकिस्तानी अब्दुस सलाम द्वारा चलाए जा रहे विभिन्न फ्रंट कंपनियों के माध्यम से काम कर रहे थे। अब्दुस सलाम उत्तरी लंदन के कोलिंडेल में एक डाउन-इन-द-डंप रेडियो शॉप सलाम रेडियो चलाते थे। बाद में सलाम रेडियो को एसआर इंटरनेशनल का नाम दिया गया और फिर यही वेयरगेट में बदल गयी।
पीटर ग्रिफिन यूरोप से दुबई चले गए थे और इन कंपनियों में निदेशक थे।
1975 में हॉलैंड से हाई-फ्रीक्वेंसी इनवर्टर प्राप्त करने में विफल रहने के बाद, वेयरगेट की पाकिस्तानी टीम को टीम इंडस्ट्रीज के अर्नेस्ट पिफल के माध्यम से तीस इनवर्टर का ऑर्डर मिलता है।
उन्हें उसी चैनल के माध्यम से दो और आर्डर मिलते हैं लेकिन मूल कंपनी आपूर्ति करने से इनकार कर देती है। पाकिस्तानी हार नहीं मानते और दूसरा आर्डर भी पूरा कर लेते हैं। लेकिन एक बार फिर तीसरे आदेश पर ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रतिबंध लगा दिया गया था।
घमंड के मारे ब्रिटिश पाकिस्तानियों को आपूर्ति करना जारी रखे थे कि पाकिस्तानियों को यह नहीं पता होगा कि ऐसे परिष्कृत उपकरणों का क्या करना है।
रॉ द्वारा सूचना प्राप्त होने पर आखिरकार मोरारजी देसाई के कानों पर जूं रेंगती है और वो अन्य सरकारों को पत्र लिखते हैं।
हालांकि अब तक लंदन क्लब सतर्क हो गया था और इन गतिविधियों के खिलाफ प्रतिबंध लगाना शुरू कर दिया था। 1979 के अंत तक, पाकिस्तान का परमाणुकरण पश्चिमी सामरिक हितों के लिए गौण हो हो चुकाथा।
दूसरी विडंबना उस समय यह हुई कि जब अमेरिकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने 1977 में भारत को उसके परमाणु रिएक्टरों के लिए भारी पानी और यूरेनियम की पेशकश के बदले में भारतीय परमाणु सामग्री का निरीक्षण करने की मांग रखी थी, मोरारजी देसाई ने मना कर दिया था।
बाद में, 1978 में, देसाई शायद जाने-अनजाने में, जनरल जिया उल-हक के कान में यह डाल देते हैं कि भारत को पता था कि पाकिस्तान परमाणु बम बना रहा है।
पाकिस्तान के लिए एक और सौभाग्यशाली ब्रेक आगा हसन आबिदी द्वारा बैंक ऑफ क्रेडिट एंड कॉमर्स इंटरनेशनल (बीसीसीआई) की स्थापना थी।
बैंक विभिन्न संदिग्ध लेनदेन में शामिल था, जिसमें पाकिस्तान की परमाणु खरीद भी शामिल थी।
अप्रैल 1978 तक, पाकिस्तान ने यूरेनियम की एक छोटी मात्रा को सफलतापूर्वक समृद्ध कर लिया था, लेकिन वह हथियार-ग्रेड यूरेनियम नहीं था। इसका मतलब था कि अधिक उपकरणों और प्रयोग की ज़रुरत थी जिसके लिए कम से कम तीन साल लगने वाले थे।
यह वही समय था जब पाकिस्तान अमेरिका और सऊदी अरब के साथ सोवियत-अफगान युद्ध में शामिल हो रहा था।
1979 तक, राष्ट्रपति कार्टर के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ज़बिग्न्यू ब्रेज़िंस्की ने घोषणा की कि अफ़ग़ान प्रतिरोध (मुजाहिदीन) को हथियारों और धन की आपूर्ति की जानी चाहिए और पाकिस्तानी सहयोग प्राप्त करने के लिए अमेरिका को पाकिस्तान के प्रति हमारी नीति की समीक्षा की आवश्यकता के साथ-साथ अधिक गारंटी की भीआवश्यकता होगी। हमें इसके लिए पाकिस्तान को अधिक हथियारों की सहायता भी करनी होगी।
पाकिस्तान के परमाणु हथियार कार्यक्रम पर टिप्पणी करने के लिए कहे जाने पर कार्टर के उत्तराधिकारी रोनाल्ड रीगन ने कहा, “मुझे नहीं लगता कि हमें इस से कोई मतलब होना चाहिए।”
रीगन ने सिमिंग्टन संशोधन पर छूट लेते हुए, जिहाद रकम के लिए कांग्रेस की मंजूरी हेतु पाकिस्तान के पास परमाणु बम नहीं होने को प्रमाणित करने के लिए अस्पष्ट शब्दों और अर्थों वाले प्रेसलर संशोधन का उपयोग किया था। अफगान जिहाद की अवधि के दौरान और 1991 में सोवियत संघ के पतन तक पाकिस्तान के पापों को अमरीका द्वारा अनदेखा और माफ किया जाता रहा। उनको नहीं पता था कि पाकिस्तान एक भस्मासुर है।
25 दिसंबर 1979 को, सोवियत सैनिकों ने अफगानिस्तान पहुंचना शुरू किया। इसकी प्रतिक्रिया अमेरिका समर्थित अफगान जिहाद से होने वाली थी। अमेरिकी अपने इस कोल्ड वॉर के लिए सोवियतों के खिलाफ पाकिस्तानी समर्थन प्राप्त करने के नए तरीकों की तलाश में जुट चुके थे।
इसकी एकमात्र कीमत पाकिस्तान के परमाणु परियोजना के लिए “ग्रीन सिग्नल” वाली थी। यानी अमरीका अब पाकिस्तान के परमाणु योजना में कोई हस्तक्षेप नहीं करने वाला था। इस कीमत की कीमत अब आगे चलकर दुनिया चुकाने वाली थी। पाकिस्तान अब यूरेनियम संवर्धन तकनीक के लिए उत्तर कोरियाई मिसाइलों का अधिग्रहण करने वाला था।
कदीर पाकिस्तान के उद्धारकर्ता और सुपर हीरो बन चुके थे। आखिरकार, वह अब्दुल कदीर खान ही थे, जिन्होंने देश को परमाणु बम दिया था और लोगों को दुश्मन: भारत से सुरक्षित किया था। यह उससे कहीं अधिक था जो पाकिस्तान की बड़ी सेना आज तक कर पायी थी।
पाकिस्तान लौटने पर कदीर ने रावलपिंडी को पीने के पानी की आपूर्ति करने वाली झील पर बिना किसी आधिकारिक मंजूरी के अपने लिए एक भव्य हवेली का निर्माण किया था। मई 1998 में चगाई में बम परीक्षण के दौरान किनारे कर दिए जाने के बावजूद कदीर को पाकिस्तान के बम के “पिता” के रूप में जाना जाता था। उनको किनारे करने का कारण उनकी औकात से ज्यादा कद बढ़ना था जो कि पाकिस्तानी सेना को पसंद नहीं आ रहा था।
कदीर अब अहंकारी होने के साथ-साथ लालची भी होते जा रहे थे। कदीर ने अन्य देशों को बम बनाने में मदद करना शुरू कर दिया था। बम बनाने के लिए तकनीक की चोरी करना कम पाप है लेकिन उसकी तकनीक का व्यापार निश्चित रूप से एक अक्षम्य अपराध है।
यह अकल्पनीय है कि खान ने उच्च पदों पर बैठे लोगों की भागीदारी के बिना “वन मैन मिशन” के रूप में अपनी गतिविधि को अंजाम दिया होगा। इसका यही मतलब था सेना और खुफिया एजेंसी इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस भी सी मामले से जुडी हुई थी।
1990 के दशक की शुरुआत में, यह संदेह हुआ कि ईरान ने यूरेनियम संवर्धन तकनीक हासिल कर ली है और इसे पाकिस्तान से प्राप्त किया गया था। उत्तर कोरिया और लीबिया वो अन्य देश थे जिन्होंने पाकिस्तान से कुछ तकनीक प्राप्त की थी।
भले ही खान के लिए खेल खत्म हो गया था लेकिन उन्हें मुशर्रफ द्वारा फरवरी 2004 में सम्मानपूर्वक गायब होने दिया गया था। सबूत लगातार बढ़ते गए थे और 2003 तक इंटरनेशनल एटॉमिक एनर्जी एजेंसी के पास इस बारे में पूरी जानकारी आ चुकी थी।
लेकिन यह पाकिस्तान को फंसा नहीं सका और पाकिस्तान की किस्मत ने एक बार फिर उसका साथ दिया।
हसन ने कहा कि उन्हें चिंता है कि अमेरिका की तरह पाकिस्तान भी ऐसा देश है जो वास्तव में परमाणु बम का इस्तेमाल कर सकता है। जिन लोगों के पास इस बढ़ते खतरे को रोकने के साधन थे, वे या तो रुचि नहीं ले रहे थे या अनिच्छुक और असमर्थ थे। उनका कहना था कि पश्चिमी दुनिया को यह भी पता है कि ऐसा एक दिन हो कर ही रहेगा। और वो दिन इक्कीसवीं शताब्दी का कोई भी एक दिन होगा।
विलियम लैंगविशे ने अपनी पुस्तक द एटॉमिक बाज़ार में पाकिस्तान के पूर्व वित्त मंत्री मुबाशिर हसन के साथ किए गए एक साक्षात्कार का उल्लेख किया है।
हसन ने कहा कि उन्हें चिंता है कि अमेरिका की तरह पाकिस्तान भी ऐसा देश है जो वास्तव में परमाणु बम का इस्तेमाल कर सकता है। जिन लोगों के पास इस बढ़ते खतरे को रोकने के साधन थे, वे या तो रुचि नहीं ले रहे थे या अनिच्छुक और असमर्थ थे।
उनका कहना था कि पश्चिमी दुनिया को यह भी पता है कि ऐसा एक दिन हो कर ही रहेगा। और वो दिन इक्कीसवीं शताब्दी का कोई भी एक दिन होगा।