लगभग १९५० से अयोध्या को लेकर न्यायालय में वाद चल रहा था , खींचते खींचते २००२ में जाकर अलाहाबाद उच्च न्यायलय ने विवादित स्थल के उत्खनन का आदेश दिया । ये पहला उत्खनन नहीं था , इससे पहला उत्खनन बहुत लघु था । १९७० के दशक में बृज बिहारी लाल , भारतीय पुरातत्व के अध्यक्ष , मन्दिर के आधारों को खोज चुके थे । तो हमें पहले ही पता था कि उन्हें वहाँ क्या मिलने वाला है । लेकिन इस बार बहुत विस्तृत उत्खनन हुआ और सारे सन्देह पूरी तरह निरस्त हो गए ।
मन्दिर के आधार वहाँ पर थे ही तो हमारे पास वहाँ मन्दिर होने का पर्याप्त प्रमाण मिल गया और अब इसका नकारना बिलकुल भी सम्भव नहीं था । तो अब ये पूरी तरह निर्विवाद है कि सेक्युलरवादी इतिहासकार पराजित हो गए । इसलिये जब उन्हें साक्षी के रूप में न्यायलय में बुलाया गया तो वे चारों खाने चित हो गए । उन्हें ऐसा स्वीकार करना पड़ा कि “मैं पुरातत्वविद नहीं हूँ , मुझे ये सब चीज़ें नहीं आतीं । मैं कभी अयोध्या गया नहीं , ये मेरा कार्यक्षेत्र नहीं है ” , इस तरह एक – एक करके सब धराशायी हो गये । मीनाक्षी जैन की पुस्तक इस पर विस्तार से पढ़ सकते हैं ।
परन्तु इन सेक्युलरवादी इतिहासकारों को मीडिया ने लज्जित होने से बचाया । यदि आपने न्यायालय में चली सारी गतिविधियों का अध्ययन नहीं किया तो आपको ये पता नहीं चलेगा । पश्चिम के भी सभी विद्वानों ने ऐसा व्यवहार किया कि जैसे कुछ हुआ ही ना हो । यदि आपने न्यायलय की गातिविधियों का अध्ययन न किया हो और आप इतने बड़े ना रहे हों कि विध्वंस के समय उपस्थित होते तो आपको आज भी यही लगता कि ये मन्दिर नृशंस हिन्दूवादियों की गढ़ना है क्योंकि सभी विद्वान उस समय यही कहते थे । उस समय मैं बहुत अकेला था और मेरी बहुत प्रताड़ना हुई । मेरा करियर नष्ट हो गया , परन्तु अन्ततः अपनी बात सही सिद्ध होने का संतोष प्रसन्नता देता है और अब वे सब लोग अयोध्या के विषय पर मुँह फेर लेते हैं , बात ही नहीं करते ।