मेरे अनुसार HRCE सम्बन्धित जितनी भी विधियाँ हैं वे सब इसी प्रपत्र से निकली हैं , पूरे देश में। पहले मैं आपको इसकी पृष्ठभूमिबताताहूँ।तमिल नाडू HRCE विधिनियम का एक कुख्यात अनुभाग है, अनुभाग ४५ जिसमें हिन्दू संस्थाओं में कार्यकारी अधिकारियों की नियुक्ति का विषय है।ये अधिकारी उस संस्था के प्रशासन में मुख्य होते हैं।
१९६५ में उच्चतम न्यायालय ने एक निर्णय लिया , जो तमिल नाडू की एक संस्था के विषय में था। इस निर्णय में स्पष्टरूप से कहा गया कि राज्य किसी भी परिस्थिति में मन्दिर के प्रशासन को सम्पूर्ण रूप से अपने अधिकार में नहीं लेगा, क्यों? क्योंकि अनु ०२५ (२)(अ) जो कि राज्य को मन्दिर में हस्तक्षेप करने का अधिका रदेता है वह राज्य को धर्मनिरपेक्ष गतिविधियों तक सीमित करता है, प्रशासन में प्रवेश नहीं देता। याने सरकार एक रूपरेखा दे सकती है किसी निश्चित उद्देश्य के लिये जिससे कोई दुराचार या दुर्व्यवस्था नपनपे, परन्तु मन्दिर से जुड़े समाज को पूरा अधिकार है कि वह अपने लोगों को नियुक्त करे जो उस रूपरेखा को लागू करें, परन्तु राज्य इस रूपरेखा में, इस ढाँचे में प्रवेश नहीं करेगा और नाही अपने किसी व्यक्ति को बिठाएगा क्योंकि ऐसा करने से मन्दिर के प्रशासन का पूरा अधिकार सरकार को होजाएगा।
इस निर्णय में उच्चतम न्यायलय ने, मन्दिर के निरिक्षण और उसके प्रशासन के अधिग्रहण में स्पष्ट भेद किया है। २०१५ में क्षमा कीजिये ६ दिसम्बर २०१४ को उच्चतम न्यायलय ने चिदंबरम मन्दिर के विषय में एक निर्णय दिया, इसमें सुब्रह्मण्यम स्वामी मन्दिर की ओर से अधिवक्ता थे। उच्चतम न्यायलय ने विशेष रूप से अनु ०४५ का और सामान्य रूप से HRCE से जुड़े हुए विधिनियमों का विश्लेषण किया है। उच्चतम न्यायलय कहता है कि यदि सरकार को अनु ०२६ के अनुसार धार्मिक सम्प्रदायों को उनकी संस्थाएँ सम्वैधानिक रूप से चलाने के अधिकार का सम्मान करना है तो सरकार को स्वयं कोइन संस्थाओं पर थोपना नहीं चाहिये और सरकार की मर्यादा केवल निरिक्षण करने वसुचारू संचालन सुनिश्चित करने तक है, प्रशासन को सर्वथा अधिगृहीत करना उसके लिये अनुचित है।
तो किस सन्दर्भ में यह आदेश दिया गया था? १९५४ से लेकर २०१४ तक, जिस दिन तक यह निर्णय आया था, तमिल नाडु के प्रत्येक मन्दिरमें, चाहे वह छोटा होया बड़ा, चाहे उसकी आयमानो एक लाख या दस सहस्र से कम हो, राज्य द्वारा, कार्यकारी अधिकारी नियुक्त थे। कोई तर्क अथवा स्पीकिंग ऑर्डर भी नहीं दिया गया जो इस प्रश्न का उत्तर दे कि मन्दिर को सरकार द्वारा नियुक्त कार्यकारी अधिकारी के अधीन होना ही क्यों चाहिए।
यदि कोई कार्यकारी अधिकारी किसी मन्दिर में नियुक्त किया जाता है, आपके मन में इतना तो होना चाहिए, कि दाल में कुछ काला है, तो वो नियुक्ति लिखित में होनी चाहिए, उसके लिये तर्क दिए जाने चाहिये, ये न्यायका स्वाभाविक सिद्धांत है। जब राज्य किसी निजी संस्था में हस्तक्षेप करने का निर्णय लेता है तो उसे तर्क देना आवश्यक है कि उसका हस्तक्षेप उचित क्यों है। एक भी कारण नहीं दिया गया, उच्चतम न्यायलय के सम्मुखए कभी प्रमाण नहीं रखा गया कि क्यों इतने सारे कार्यकारी अधिकारी पूरे तमिलनाडु राज्य में नियुक्त किये गये, ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि जब ऐसा कोई अधिकारी नियुक्त होता है तो वो केवल उस समय तक अपने पद पर रह सकता है जब तक किस मस्याका समाधान न हो।
जैसे ही समस्या अथवा दुराचार ठीक क लिया जाये, अधिकारी को मन्दिर से बाहर होना ही पड़ेगा। और कोई विकल्प नहीं है , निश्चित रूप से अधिकारी को मन्दिर से निष्कासित होना चाहिये। जब कि सरकार के आदेश काल के सम्बन्ध में मौन हैं याने एक बार बैठ गये तो बैठ गये और उस अधिकारी को बाहर करने का कोई मार्ग नहीं है। सर्वोच्च न्यायलय ने कहा कि अनु ०४५ के अंतर्गत की गई आप कीस भी नियुक्तियाँ जो कि सम्विधान के अनु ०२६ का उल्लंघन करती हैं क्योंकि न तो आपने कोई समय सीमा रखी है और नही वह कारण बताया कि जिस समस्या के निदान के लिये आपने नियुक्ति की।