मैंने उस जगह की यात्रा की हैं, लेकिन उसको जानने के लिए, या फिर यह जानने के लिए की वह कैसे दिखता था, आपको हुआन सांग और आय सिंग की आत्मा कथा पढ़नी होगी, तो हुआन सांग लिखते हैं कि वह सबसे सुन्दर परिसर था I उसके चारों और बहुत बड़े किवाड़ हुआ करते थे, जब उन्होंने भीतर प्रवेश किया, तब उन्होंने अपने चारों ओर झील और पोखरे पाए ; पोखरों में कमल के फूल हुआ करते थे और बहुत बड़ी-बड़ी इमारतें हुआ करतीं थी I वहां का पुस्तकालय नौ मंजिलों का हुआ करता था, वो आगे लिखतें हैं कि जब आप मुख्य भवन के सबसे ऊपरी मंजिल पर जातें हों और नीचे की ओर देखतें हों तब आपको ख़ूबसूरत सूर्यास्थ और बहुत सुन्दर पूर्णिमा की रात्री देखने को मिलती थी, उनकी आत्मकथा पढ़ते समय आपको आभास होगा कि नालंदा में पढ़ना उनके लिए कितने गौरव का विषय था, वे आगे लिखतें हैं कि नालंदा के प्रवेश द्वार पर एक बहुत बड़ी बुद्धा की मूर्ती हुआ करती थी, परिसर में, भवन में आठ सभामंड़प हुआ करते थे, जिनमे दिन में सौ पाठ हुआ करते थे, और व्याख्या कक्ष हमेशा भरे हुआ करते थे, क्योकि विद्यार्थी एक दिन भी अपना पाठ नहीं छोड़ते थे, इतना रुचिकर हुआ करता था नालंदा में पाठ, उन दिनों ढेर सारे विषयों पर पाठ पढ़ाया जाता था I सबके लिए कुछ न कुछ हुआ करता था I
बहुत सारे छात्र हुआ करते थे लगभग ८,५०० से १०,००० छात्रों तक, और १,५०० तक अध्यापक हुआ करते थे I तो आप कल्पना कर सकतें हैं कि विद्यार्थी-अध्यापक अनुपात बहुत अच्छा हुआ करता था, फिर बात आती हैं प्रवेश परीक्षा की, जो इतना मुश्किल हुआ करता था कि केवल २०% विद्यार्थी ही सफल हुआ करते थे, बाकी के ८०% विद्यार्थियों को निकाल दिया जाता था, शायद यही कारण हैं कि नालंदा के आस-पास बहुत सरे विश्वविद्यालय पाए जाते हैं I विक्रमशिला इत्यादि नालंदा से कुछ ही दूर हुआ करतें थे, संभवतः उन विद्यार्थियों को पढ़ाने के लिए जिन्हें नालंदा में प्रवेश न मिला हो I इसी कारन अन्य विश्वविद्यालय नालंदा के पास आये और फिर अनुशिक्षण केंद्र I नालंदा के आस पास के गाँव में, इस बात की पुष्टि करते हुए अभिलेख पाए गए हैं, कि नालंदा के आस-पास के गाओं में अध्यापक नालंदा के प्रवेश परीक्षा में उत्तीर्ण होने के लिए प्रशिक्षण दिया करते थे I