स्वामी रामानन्द जगह-जगह से तीर्थ करके जब वापस लौटे, तब उन्होंने यह निर्णय लिया कि इस भयावह समस्या से निपटने लिए, दूसरे स्तर पर युद्ध करना होगा I सांस्कृतिक युद्द, धार्मिक युद्द I उन्होंने अपने जो गुरु भाई थे, उनसे अलग हटकरके एक नया पन्थ शुरू किया I
पंथ मूलतः वह सनातन का ही है, वह हिन्दू धर्म का ही है, मूल पंथ वही है, लेकिन जो कुछ कथित पोंगा पंडित थे उनसे हटे वे, और उन्होंने अपने शिष्य बनाये I उनके हज़ारों शिष्य बने, जात -पात की तो कोई बंदिश ही नहीं थी I और १२ जो सबसे प्रमुख शिष्य बने जिन्हे कि “द्वादश महाभागवत” कहा जाता है I
आप देखिये, इस शब्द पर ध्यान दीजिये, द्वादश महाभागवत I वो जो बारह शिष्य हैं, उनमे कबीर हैं, जो जाति से जुलाहा हैं, उनमे रैदास हैं जो चर्मकार हैं, उसमे धन्ना हैं, जो जाति से जाट हैं, लेकिन कसाई वृत्ति का काम करते हैं I उसमे पीपा है , क्षत्रिय है , और सेन हैं जो नाई का काम करते हैं I उसमे ब्राह्मण हैं भवानन्द हैं, सुखानंद हैं, नित्यानंद हैं और उसमे सुरसरि है, उसमे गंगा नाम की वैश्या भी है I
अब आप कहिये के किस तरह से हिन्दू धर्म जात -पात करता है? जो सर्वोच्च संत, है वह बिना किसी भेद-भाव के, अपार करुणा के साथ, किसी नाई को संतत्व का दर्जा देता है, और आप कहतें है कि आप ब्राह्मण वादी है, आप विवेद करते है, आप छुआ-छूत करते है I