अभी इसमें बहुत व विभिन्न पहलू हैं। उनमें से एक यहां काफी मात्रा में न्यायपालिका द्वारा हस्तक्षेप, उन संगठनों द्वारा दायर अभियोग के कारण है, आप जानते हैं, मुक़दमेबाज़ी, जनहित याचिका न्यायालय में संगठनों द्वारा दायर किए गए, जिसमे मुकदमे चलाने के तरीके में कुछ निहित स्वार्थ हैं। यह विदेशी निधिकरण का एक प्रत्याशित कोण है जिसे पे मैं शायद थोड़ी चर्चा करूंगा, मैंने अलग विषय पे चर्चा शुरू कर दिया है पर जिसके बारे में हम अभी अधिक विस्तार से चर्चा नहीं करेंगे ।
इस तरह के बृहत तौर पे जनहित याचिका और विविध व बहू आयामी नियम बनाना और हस्तक्षेप करना खासतौर से हिंदू समारोह में, धार्मिक समारोह में, यही संविधान की संरचना है । संविधान में कुछ निश्चित पहलू हैं जो धर्मों का अभ्यास कुछ आपट्त्ति के साथ करने की स्वतंत्रता हैं ।
अनुच्छेद 19 कहता है की, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के संबंध में कुछ अधिकारों के संरक्षण, शांति से इकट्ठा होने, संघों या यूनियनों के गठन, भारत के पूरे क्षेत्र में स्वतंत्र रूप से स्थानांतरित करने और किसी भी जीविका, पेशा आदि का अभ्यास करने के बारे में चर्चा की गई है। तो यहाँ, एक राज्य है जो कहता है की कि किसी भी मौजूदा कानून के संचालन को प्रभावित करने या राज्य को कोई भी कानून बनाने से कोई भी रोक प्रभावित नहीं कर पाएगी । जहां तक, ऐसे नियम अधिकारों के प्रयोग पर प्रतिबंध लगाता है, भारत की संप्रभुता या अखंडता के हित में, राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्य के अनुकूल संबंध, सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता या नैतिकता न्यायालय की अवमानना व अवरोध अथवा अपराध के लिए उकसाने के संबंध में।
अब यह अभिवक्ती की स्वाधीनता, सम्मेलन करना, संगठन बनाने की स्वच्छंदता । तो अब आपके पास संगठन बनाने की स्वच्छंदता, परंतु यह जनहित, शालीनता या नैतिकता में परिमित वाधा के साथ ही है । तो यही है अनुच्छेद १९ और २५, विवेक की स्वाधीनता और अधिकार स्वतंत्र तौर से पेशा चुनना, अभ्यास करना, अपने धर्म को बढ़ावा देना । और जैसे ही आप कहते हैं की भारतीय राष्ट्र पेशा चुनना, अभ्यास करना, अपने धर्म को बढ़ावा देना को छुट देता है, तो तुरंत ही यह यह भी कहता है की यह सब सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता तथा स्वास्थ्य के विषय-वस्तु पे आश्रीत है । साथ ही विशेष अनुच्छेद २५ (२) (b) यह कहता है की इस अनुच्छेद में लिखा कुछ भी वर्तमान में चालू कार्य-विधि में किसी भी तरह से प्रभाव नहीं डालेगा एवं राज्य को कोई नियम बनाने से रोकेगा नहीं बशर्ते की सामाजिक खुशहाली व सुधार भी दे, अथवा एक विशिष्ट सार्वजनिक जन-चरित्र के मंदिर को हिंदुओं के हर वर्ग के लिए खुला फेंकना ।
ये वो अनुच्छेद हैं जो भारत के नागरिकों को अपने धर्म का पालन करने की स्वतंत्रता देते हैं, लेकिन परिमित सीमाओं के साथ। उचित सीमाओं में से एक यह है कि किसी भी धर्म का अभ्यास सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य पर उल्लंघन नहीं करना चाहिए। इसे लोगों की सहमति और उनके मौलिक अधिकारों की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए और यह केवल हिंदू धार्मिक संस्थानों के लिए सामाजिक कल्याण और सुधार के लिए प्रदान करता है। सामाजिक कल्याण और सुधार केवल हिंदू धार्मिक संस्थानों तक ही सीमित है, क्योंकि मुख्य रूप से उस समय संवैधानिक सभा बुलाई गई थी और यह विचार था कि कुछ सुरक्षाएं थीं जो लोगों को दी जानी थीं। कुछ एक रीति जो मंदिरों में प्रवेश के लिए प्रतिबंध लगाती थी जो सार्वजनिक चरित्र की थीं। फिर से यह विशेष रूप से कहता है कि, भले ही मंदिर सार्वजनिक चरित्र का हो, लेकिन मैं ईसपे पावन्द लगा सकता हूँ । यदि किसी व्यक्ति के घर के अंदर एक निजी मंदिर है, यदि मेरे पास कोई व्यक्तिगत मंदिर होगा, मान लीजिये की मैं स्मपन्न हूँ और विशालल घर हैम मेरे घर में एक छोटा व्यकतिगत मंदिर है तो मैं उसमें प्रवेश पे प्रतिबंधित कर सकता हूँ की किसे अंदर आना है और किसे नहीं । मैं ऐसे कहह सकत हूँ, उदाहरण स्वरूप, मैं कहा सकता हूँ की मठों में जाँघिया का पहनावा स्वीकार्य नहीं है, वहाँ परिधान का एक अलग नियम है, वहाँ मद्यपान उपरांत प्रवेश वर्जित है । ऐसे ही प्रतिबंध मैं अपने मंदिर में लागू करता हूँ अथवा यदि में एक बहुत ही घिनोंना व्यक्ति हूँ में तो समाज के किसी एक जाती व वर्ग को मंदिर में प्रवेश से रोकूँगा । कानून में ऐसा कुछ भी नहीं है जिससे किसी व्यक्ति को अपनी संपत्ति के मालिक होने से रोका जा सके। यह मुझे बस बुरा ही बनाता है पर मेरे कार्य को अवैध नहीं मानती है ।
अनुच्छेद 26 सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के अधीन धार्मिक मामलों के प्रबंधन की स्वतंत्रता पर चर्चा करता है । प्रत्येक धार्मिक संप्रदाय या उसके किसी भी हिस्से को अपने मामलों का प्रबंधन करने का अधिकार होगा ।