Translation Credit: Mahesh Srimali.
स्वतंत्रता के समानांतर संघर्ष की इस पूरी धारा में, अगर हम वास्तव में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के पूरे कथा को पलट कर देखें और इसे क्रांतिकारी या सशस्त्र संघर्ष के दृष्टिकोण से देखें, तो एक पूरी तरह से अलग तस्वीर उभरती है, जहाँ आप विभिन्न नायकों को देखेंगे। जिन्हें आप नरमपंथियों कहते हैं, उन्हें निष्ठावान माना जाता था, जिन्हें आप अतिवादी कहते हैं, शायद राष्ट्रवादी बन जाएँ।
आप जानते ही हैं, इतिहास उस समय, एक बहुत ही अलग तरह से करवट ले रहा था। 1857 से 1946 के सामानांतर आंदोलन के एकदम मध्य के समय में सावरकर का समय आया। और वे बाल गंगाधर तिलक के एक समर्थक के रूप में उभरे।
सावरकर एक, चितपावन ब्राह्मण घराने में पैदा हुए थे। महाराष्ट्र के नासिक जिले के एक छोटे से गाँव भागुर में 1883 की 28 मई के दिन उनका जन्म हुआ था। वह तीन भाईओं में से दुसरे नंबर पर थे – बड़े भाई गणेश राव, छोटा भाई नारायण राव और एक बहन मैना। बॉम्बे के गवर्नर सर रिचर्ड टेम्पल ने तत्कालीन वायसराय लॉर्ड लिटन को, पूरे चितपावन ब्राह्मण समुदाय के बारे में बहुत ही दिलचस्प पत्र लिखा। आम तौर पर यह माना जाता है कि अंग्रेजों ने मुगलों से जीतकर भारत पर अधिकार लिया था, लेकिन वास्तव में मराठों से देश को लिया गया है और यह इसलिए क्योंकि वास्तविक तौर पर उस समय देश का विशाल हिस्सा मराठा के अधीन था। 1818 के युद्ध में मराठा को पराजित करके भारत पर अधिकार कर लिया गया था। और मराठा, पेशवा, चितपावन ब्राह्मण समुदाय के परिवार से ही हैं। लार्ड टेम्पल ने कहा कि, “हम उनके लिए कुछ भी करें, हम उन्हें कितनी शिक्षा दें, हम उन्हें कितनी भी सुविधाएं दें। वे सिविल सेवा का हिस्सा हैं, वे विभिन्न सरकारी विभागों का हिस्सा हैं, लेकिन फिर भी हमारे लिए उनकी नाराजगी खत्म नहीं होगी। वे एक उग्रवादी प्रकार के ही रहेंगे, आप जानते हैं, कि वे हमारे लिए अपनी घृणा कभी नहीं छोड़ेंगे”।
उनका यह कथन इस तथ्य से पैदा हुआ था कि, महाराष्ट्र में उस समय के अधिकांश महान सुधारक शिक्षाविद्, वकील, विचारक, – गोपाल कृष्ण गोखले से लेकर बाल गंगाधर तिलक तक, विष्णुश्री चिपलुनकर से लेकर गणेश अगरकर तक और निश्चित रूप से सावरकर भी – सभी इसी समुदाय से थे। वह छोटा सा घर जहाँ सावरकर के जन्म हुआ तथा बचपन बीता, वहीँ उन्होंने वास्तव में जाति व्यवस्था को खत्म कर दिया था। उच्च जाति का सवर्ण ब्राह्मण होने के बावजूद, वह हमेशा अपने दोस्तों के साथ घुलना-मिलना पसंद करता था, जो सभी निचली जातियों से थे और वह, उनके साथ भोजन भी करते थे और उनके साथ खेला भी करते थे। वह अपनी उम्र से परे एक बेहद उत्सुक पाठक थे। सभी समाचार पत्रों और पुस्तकों को पढ़ना उन्हें बेहद रुचिकर था, साथ ही वे सबके साथ उसकी चर्चा भी करते थे।
बचपन से ही किसी के साथ प्रतिस्पर्धा में रहने के बजाय सामुदायिक जीवन, सामुदायिक समृद्धि उनकी विशेषता थी। जब वे आठ साल के थे तब उनमें कविता लेखन कि रूचि भी उत्पन्न हुई थी। जब वह छह साल के थे, उन्होंने अपनी मां राधा बाई को हैजा के कारण खो दिया था। ऐसे में उनके पिता दामोदर पंत पर चारों बच्चों की देखभाल कि जिम्मेवारी आ गयी।
अब इसी समय महाराष्ट्र में प्लेग का यह कहर छाया, जिसने राज्य के विभिन्न हिस्सों को पूरी तरह से तबाह कर दिया। महामारी को वास्तव में नियंत्रित करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने बहुत ही दमनकारी उपाय किये। जिन परिवारों में प्लेग के रोगियों का पता चला, उन्हें पुलिस ने घरों से निकाल दिया, महिलाओं को परेशान किया, पूजा घर तोड़ दिए और उन लोगो को शहर से बहुत दूर के किसी शिविर ने प्रस्थापित कर दिया। इस कारण, अगर कोई मृत चूहा घर में कहीं भी पाया जाता था। तो यह बात छुपा कर रखी जाती थी, जब तक कि वास्तव में उस परिवार में प्लेग के कारण कोई मृत्यु नहीं हो जाती और बाहर के लोग यह जान नहीं जाते की इस परिवार में प्लेग के रोगी हैं। यह प्लेग निरोधक उपाय इतने दमनकारी थे कि इसने महाराष्ट्र में रहने वाले लोगों के बीच बहुत अधिक आतंक पैदा कर दिया। तीन भाइयों ने अंग्रेजों के इस कृत्य का बदला लेने का निर्णय लिया और वे तीन भाई थे, चापेकर ब्रदर्स – दामोदर हरि चापेकर, बाला कृष्णारी चापेकर और उनके छोटे भाई वासुदेव हरि चापेकर। इन तीनो ने फैसला किया, कि वे बंदूक उठाएंगे और वास्तव में पुणे के प्लेग अधिकारी की हत्या करेंगे, जिसका नाम वाल्टर रैंड और उनके लेफ्टिनेंट चार्ल्स एएर्स्ट था।
इस हत्या ने सम्पूर्ण मुंबई को सदमे में भेज दिया। लोगों को लगा की लॉर्ड टेम्प्ल का शब्द सही है। वे तीनो भाई चितपावन समुदाय से भी सम्बंधित थे। वे कोई उग्रवादी नहीं थे, वे वास्तव में अंग्रेजी में शिक्षित थे और इस तथ्य के बावजूद, उन्होंने हथियार उठाया और खुद ब्रिटिश अधिकारियों में से एक को मारा। इस घटना ने महाराष्ट्रीय समाज में दो तरह की प्रतिक्रियाओं को जन्म दिया – एक ओर अंग्रेजों ने इससे घृणित कार्य घोषित किया, वहीँ दूसरी ओर महाराष्ट्र के अखबारों, जिसमें केसरी भी सम्मिलित था, ने इसकी कड़ी निंदा करते हुए इसे मूर्खतापूर्ण कार्य बताया।
युवा सावरकर तब लगभग 14 साल के थे और चापेकर भाइयों के बारे में जो वीर गाथाएँ चल रही थीं, उनसे बहुत व्याकुल व प्रभावित हो गए। जिस तरह से होठों पर एक मुस्कुराहट और गीता के श्लोकों के साथ उन्हें फांसी के लिए ले जाया गया था, सावरकर ने भी फैसला किया कि वह भी अपने परिवार के देवता, अष्ट भुजा भवानी, (8 हाथ वाली देवी भवानी) की प्रतिमा के पास जाएंगे। यह प्रतिमा अभी भी भागुर में खंडोबा के मंदिर में स्थित है। उन्होंने माँ के सामने मराठी में एक व्रत लिया – “मैं अपनी बंदूक उठाऊंगा और अपने अंत तक लड़ूंगा, अपने दुश्मन को मारूंगा जब तक अंतिम दुश्मन बचा रहेगा। 14 वर्ष की उम्र में किसी बालक द्वारा किया गया यह कृत्य बहुत ही बचकाना लग रहा था।
लेकिन इतिहास यह नहीं जानता था, कि आने वाली पीढ़ी इस एक रात के व्रत के प्रतिक्रिया का सामना करने वाली थी, जो सावरकर ने उस दिन लिया था।